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Thursday, June 12, 2008

भावनाओं का अंधड़

मदर्स डे के अवसर पर मैं एक प्रसिद्ध संगीत प्रतियोगिता प्रोग्राम टीवी पर देख रही थी। एक एक कर प्रतियोगी मंच पर आए और बेहद भावुक गाना गाकर सभी ने अपनी मां से जुड़े कुछ यादगार लम्हों को बताया। कुछ इस तरह कि दर्शकों के साथ साथ जजों की पलकें भी नम हो गई। कमरे में मेरी मां सोफे पर मेरे साथ बैठकर कार्यक्रम का लुत्फ उठा रही थी। मेरी नजर मां के चेहरे पर दौड़ी तो देखा आंसूओं का सैलाब उनकी आंखों से भी बह रहा था। मैं कुछ बोलना चाहती थी लेकिन उस पल चुप रहना ही बेहतर समझा। लेकिन इस सब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या ये आंसूओं की धार सचमुच में धारदार है। या फिर वो नाटकीय पानी है जिसे बहाकर हम शायद अपनी वास्तविक सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियों से हाथ धो रहे हैं। ये धारा तब तो बहती है जब किसी सीरियल में मुख्य किरदार दम तोड़ देता है लेकिन उस समय क्यों नहीं जब किसी शराबी साहबजादे की कार के पहियों से कोई जिंदगी कुचल दी जाती है। और वो उसे मरता हुआ छोड़कर घटनास्थल से रफूचक्कर हो जाता है। हमारे गुस्से का गुबार तब तो फूटता है जब कोई पॉपुलर टीवी पात्र किसी षडयंत्र का शिकार बनता है लेकिन तब क्यों चुप्पी साध ली जाती है जब खचाखच भरी बस में किसी लड़की के साथ मनचले छेड़खानी कर आराम से चलते बनते हैं। भावनाओं का सैलाब तब तो जरूर उमड़ता है जब कोई प्रतियोगी बच्चा कम अंकों के कारण प्रतियोगिता से बाहर हो जाता है लेकिन तब क्यों यही सैलाब ठंडा पड़ जाता है जब हम अपने ही घरों में नाबालिगों से नौकरों का काम लेते हैं। संवेदनहीनता की एक बानगी जयपुर में देखने को मिली। शुक्रवार को हुए धमाकों से कई परिवार लहूलुहान हो गए। लेकिन कुछ ही दिन बाद इसी जयपुर में आईपीएल मैचों का भव्यता से आयोजन हुआ। यकीनन क्रिकेट की इस मस्ती में मारे गए लोगों की खून से सनी लाशों को आसानी से नहीं भुलाया जा सकता। जी हां ये सही है कि जीवन सिर्फ बहने का ही नाम है लेकिन ये बहाव गर बिना दिशा बेतरतीब हो तो जीवन में तूफान ला देता है। कैसे नहीं जयपुर वासियों के साथ सारा देश सबीना नाम की उस बच्ची से जुड़ पाया जो इन धमाकों में अपनी मां और मौसियों को खो बैठी है। कॉरपोर्टे कल्चर की ही भाषा में कहूं तो क्या हमारी भावनाओं का निवेश इतना सस्ता हो गया है कि हम उसे यूं ही जाया कर दें। सवाल सिर्फ इतना है कि क्या हमारी संवेदनाएं, हमारे आंसू और हमारी भावनाएं इतनी भौंड़ी हो गई है कि पर्दें के काल्पनिक संसार के लिए तो उजागर हो सकती है लेकिन वास्तविक जीवन के उथल पुथल के बीज सिर्फ तमाशबीन बन कर रह जाती है।

अन्जान

ये कौन सी जमीं है ये कौन सा आसमां
कि हर तरफ है शोरगुल का ही समां
सहमा बचपन, भटका युवा मन
नशे की देवी को करता भविष्य अर्पण
अंधी दौड़ में पगलाया, सुलगता जीवन

लुटती आबरु, बहता लहू
जलता आशियाना, वादों का सड़ता खजाना
भूख से व्याकुल सुबह यहां की
ठंड से कांपती शाम है।।।
दिलों में उफनती नफरत, आंखों में तैरता डर
घुट घुट कर जीवन वृक्ष रहा है मर
गांव में सूखा पड़ा है कुंआ
किसे है परवाह कि
यहां तो जिस्मों से उठ रहा है धुंआ
खून से सने चेहरों पर नाचती वो बेशर्म हंसी
परिचितों में भी महसूस होती अपनों की कमीट
नम पलकों से टपकटी रात गहराती चली जाती है
भरी महफिल में मनहूस तन्हाई काटने चली आती है

कौन सी जमीं है ये कौन सा आसमां
अफसोस क्या यही है मेरा भारत महान