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Thursday, July 30, 2009

रेशम की डोरी

सुबह-सुबह भाई का फोन आया था
... मोबाइल पर अपने चिरपरिचित अंदाज में उसने पूछा कि बोल दीदी राखी भेज दी है ना। मैने हां में जवाब दिया और उसे समझाने लगी कि यहां रायपुर में मुझे मेरे मन की राखियां नहीं मिलीं। (बीच में मम्मी बोलीं कि कोई जरूरत नहीं है ज्यादा महंगी राखियां भेजने की। धागा ही सबसे अच्छी राखी होता है। ये मम्मी नाम की स्पीशीज भी बहुत अजीब होती है, भई मोबाइल पर बात कोई भी करे उन्हें अपना संदेश पहुंचाना है तो है... वो चिल्लाकर अपनी बात बता ही देंगी) हां, तो मैं बता रही थी कि मेरे भाई ने तपाक से कहा कि बोल तुझेक्या गिफ्ट चाहिए... मैं स्तब्ध रह गई। सोचा ये इतना बड़ा कब से हो गया है कि अपनी बड़ी दीदी को कुछ देने कीबात करने लगा। फिर सोचा कि शायद इतना बड़ा नहीं लेकिन इतना समझदार जरूर हो गया है कि मुझेदुनियादारी समझाने लगा है। उसने सोचा होगा भई कमाने लगा हूं, इस बार दीदी को जरूर कुछ दूंगा। मुझे अच्छाभी लगा लेकिन फिर सोचती हूं कि क्या कुछ देना जरूरी है। आज रेशम के धागे का बाज़ार के साथ गहरा नाता जुड़ गया है। इतना गहरा कि एक हाथ की कलाई पर धागा बंधवाने से पहले हर भाई अपना दूसरा हाथ भरा हुआदेखना चाहता है। गिफ्ट से भरे हुए हाथ से हैसियत का तराजू बैलेंस रहने का भ्रम हो चला है दुनिया को। रेशम केधागे से बंधा प्यार का संसार, भौतिकवादी समाज में सिमटता हुआ नजर आता है मुझे। और उस पर महंगाई आंटीतो सुरसा माई बन गई है... बेचारे भाई के अरमानों को बेदर्दी से निगलती नजर आती है।
हां, आधुनिकता के साथ बदलाव जरूरी है पर क्या ये जरूरी बदलाव, जीवन की मजबूरी नहीं बनते जा रहे हैं। सचबताइए दिल से कि क्या सबसे अच्छा गिफ्ट देकर आप अपनी बहन को सबसे खुश महसूस नहीं करवाना चाहतेऔर साथ ही खुद भी गर्वान्वित महसूस करते हैं। दोष किसी का नहीं, दरअसल आधुनिकता की चादर सोने-चांदी केभौतिकवादी धागों से बुनी है। आप तो बस बाज़ार देखिए और बाज़ार का खेल देखिए। एक दूसरी बात है व्यस्तता।मेरा ख्याल है अति व्यस्तता ने इस त्योहार का मज़ा फीका कर दिया है। बड़े अरमानों से खरीदी राखी को बेचारीबहन तसल्ली से भाई की कलाई पर बांध भी नहीं पाती है... भागदौड़ भरी जिंदगी में फुरसत के पल ही कहां है? भावनाओं का दायरा भी जरा सिमटा है लेकिन शायद प्यार वहीं है, अहसास अभी भी वहीं है... मैं समझती हूं किमेरा भाई शायद कुछ देना चाहता है मुझे लेकिन उसका ये बोलना भर मेरी आखों को नम कर गया। बस एक हीबात कहना चाहूंगी, इस राखी में हो सके तो अपनी बहन के साथ कुछ देर बैठकर बातें करिए, उससे उसके सपनों केबारे में सुनिए, अपने सपने उसे बताइए... कोशिश करिए, थोड़ा वक्त निकालकर रिश्तों को महसूस करने की...

Monday, July 27, 2009

दुख

आंख के पोरों से ढुलका
गालों का सफर तय करते
ओढ़नी को भिगोता दुख
कैसे छिपाऊंगी इसे कि
पारदर्शी आंसुओं के पार
चेहरों पर पड़ी लकीरों से
कोई पढ़ लेगा कभी
कहां छिपाऊंगी इसे कि
अब तो दिल तक उतर चुका है
अंतड़ियों से गुजरता
लहू के साथ नाड़ियों में
दौड़ता दुख
कोई इलाज है क्या
उत्तर मिला... नहीं
फिर गौर से सुना
मन कुछ कह रहा था
बेचारा कहता है, धीरज धरो
ये वक्त सरकेगा
नई सुबह आएगी
धीरज धरा मैने....
लेकिन नतीजा
दुख आज भी वहीं है,
बस गुजरते लम्हों के साथ
मुझे आदत हो गई
है इसकी... हां इसकी
अब होठों पर हंसी है
सोचती हूं कि मेरे एकांत
का साथी बन बैठा है ये
मेरे अंदर गहराई में कहीं....

Friday, July 24, 2009

हदों के पार गर हद हो कोई...

हद हो गई... लेकिन क्या करें कि इससे ज्यादा और इससे नीचे भी क्या गिरते हम. देखा नहीं उस लड़की को.. बेशरम कहीं कि, बेहया और उस पर खुले आम अपने आशिक के साथ घूम रही थी.. अब बताइये भइया ये ना करते तो क्या करते हम.. बस फाड़ डाले उस कुल्टा के कपड़े. अरे जब बेहयाई मन-तन से झलक रही हो तो फिर कपड़े से उसे ढांकने से क्या फायदा. आखिकार हम ठहरे समाज के ठेकेदार. ये असामाजिक हरकत कैसे बर्दाश्त करते. सो कर दिया जो करना चाहिए था. कैसे कोई दिनदहाड़े अपने आशिक के साथ सार्वजनिक स्थान पर घूम सकत है. अरे हम पूछ रहे हैं सड़क क्या उसके बाप की है. और हां, अब कोई कहे कि भई सरेआम लड़की के कपड़े फाड़कर हमने कौन सा फर्ज निभा लिया या फिर इससे समाज का क्या भला हो जाएगा.. तो हमें फर्क नहीं पड़ता और आगे भी हम यही करते रहेंगे.. और जरा हमें एक बात बताइये कि समाज का चौथा स्तंभ वो मुआं, नासपीटा रिपोर्टरवा भी वहां मौजूद था जिसने हमें और इस बेहया को कैमरे में कैद किया था. उसको कोई कुछ क्यों नहीं बोलता. उसने क्यों अपना फर्ज नहीं निभाया और पुलिस को बुला लिया. भई हम कहते हैं कि वो एक दिन टीआरपी की फिक्र छोड़कर किसी पुलिसवाले को फोन घुमा देता क्या जाता. फिर भइया सच तो ये है कि अपनी पुलिस एक बार बुलाने पर कहां टाइम पर आती है ससुरी जो अब आ जाएगी. आती भी हमें पता है साथ हमारा ही देती. भई उनके घर में भी तो बहू-बेटियां होंगी. वो ऐसे ही करेंगी तो जचेगा क्या?
हम हैं भीड़... बेलौस... बेलगाम... कोई रोक सके तो रोके... ये खुली चुनौती है दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को हमारी...

Friday, July 17, 2009

G-8 पर दो शब्द

फिल्म बॉर्डर की लाइनें याद हैं मुझे....
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"तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं"

जी हां, धरती पर वसुधैव कुटुबम्कम को चरितार्थ तभी किया जा सकता है जब G-14 अस्तित्व में आएगा... ताकि सिर्फ
ताकतवर ही नहीं बल्कि कमजोर की आवाज भी वैश्विक स्तर पर सुनी और सुनाई जा सके...

Friday, July 10, 2009

...क्योंकि ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है

इसलिए इस समाज को बदलने की सख्त जरूरत है
क्या वाकई हम बहू-बेटी के दर्जे को समझने या सम्मान करने वाला समाज हैं? ये सवाल मेरा हर उस भारतीय से है जो उस देश में रहता है जिसे दुनिया का गुरू कहा जाता है। २०० साल गुलामी की बेड़ियों में लिपटी भारत मां को इसके सपूतों ने प्राणों की आहूति देकर स्वतंत्र कराया। लेकिन ये सब किसलिए? क्या इसलिए कि एक बार फिर यहां औरतों को परंपरा और रूढ़ियों के नाम पर गुलाम बनाकर गुड़िया की तरह घर में सजा दिया जाए। अगर नहीं तो कानपुर के कॉलेजों में लड़कियों के जींस पहनने का तुगलकी फरमान किस तरफ इशारा करता है। आखिर क्या खराबी है इस पहनावे में। मैं पूछती हूं कपड़ों का उद्देश्य क्या होता है; तन को ढकना। फिर चाहे वो किसी भी तरीके से ढका जाए। दरअसल इस विचारधारा की जड़ को खोदा जाए तो मिलेगा कि इस समाज में लड़कियों को हमेशा रक्षात्मक स्तर पर रखा गया है। हमेशा उन्हें असमाजिक तत्वों का डर दिखाकर घर की कोठरी में बंद रहने की सलाह दी गई। आखिर क्यों- सवाल ये है कि क्या सलवार कमीज पहनी (जो कि इस समाज में एक सलीकेदार पहनावे के रूप में देखा जाता है) किसी राह चलती लड़की को गंदे और अश्लील कमेंट सुनने को नहीं मिलते या फिर सरेआम उठाकर उसकी आबरू को तार तार नहीं किया जाता ? फिर यहां पहनावे की भूमिका ही कहां रही ? ये पहनावा या ऐसी ही तमाम वो बंदिशें वास्तव में उस कमजोर समाज की नाकामी को बयां करती है जो अपने घर में ही बहू-बेटियों को बेइज्जत होने से बचा पाने में लाचार है। और अगर कपड़ों से ही मानसिक विकार को रोका जा सकता है तो फिर लडकों को भी धोती कुर्ता पहनकर सड़क पर निकलना चाहिए ताकि उनकी तामसिक और आपराधिक भावनाओं को काबू किया जा सके। रोकना है तो असमाजिक रूढ़िवादी सोच को रोकिए, रक्षात्मक घेरे में आपकी बेटियां कभी भी समाज में बढ़ रही आपराधिक गतिविधियों को मुंहतोड़ जवाब नहीं दे सकतीं। सिखाना है तो उन्हें गलत के खिलाफ लड़ना सिखाइए। उन्हें सिर उठाकर जीना सिखाइए ताकि ये संभावना बनी रहे कि वो मुश्किल वक्त में आत्मरक्षा कर सके। और बलात्कार का दंश झेल रही लड़की अपनी आत्मा को पवित्र समझकर नए सिरे से जिंदगी शुरू कर सके। बहू-बेटी घर की लज्जा तब है जब आप उनके अधिकारों को सौंपकर उन्हें खुद फैसला लेने की छूट दें। आक्रमणकारी बीमार तो ये समाज है और इस संक्रामित समाज की त्रासदी लड़कियां झेल रही हैं। और आखिर में कहना चाहती हूं कि नियम कानून समाज को सही दिशा-दशा देने के लिए होते हैं ताकि जीवन खुशहाल हो सके। किसी भी कानून से जीवन बेहाल तो कतई नहीं होना चाहिए।

Thursday, July 9, 2009

उफ ये सीरियल्स....

"दीदी ये रखैल क्या होता है", टीवी पर नजरें गढ़ाए मेरे भतीजे ने मुझ पर ये सवाल दागा तो महसूस हुआ कि सात साल के बच्चे को इस शब्द की गूढ़ता समझाना कितना मुश्किल है... टीवी से पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव की ये महज एक बानगी भर है...
दृश्य-श्रव्य गुणों के कारण टीवी एक ऐसा माध्यम है जिसे परिवार का हर सदस्य एक साथ बैठकर देख सकता है। टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम और फिल्में ना सिर्फ मनोरंजन का बेहतर जरिया है बल्कि दर्शक इनसे जुड़ाव भी साफ महसूस करते हैं। यही जुड़ाव छोटे परदे के धारावाहिकों के माध्यम से काल्पनिक, वास्तविक, सामाजिक और मानसिक सभी सतहों को छूता हुआ सीधा उनकी निजी जिंदगी में प्रवेश कर जाता है। बड़े परदे के दर्जे का मान-सम्मान और बुलंदियां छूने की चाहत में धारावाहिकों को अपने कन्वेंशल रोल से बाहर निकलना पड़ा। 'हम लोग' से शुरू हुआ ये लंबा सफ़र 'नया नुक्कड़ ' से गुजरता हुआ 'लिप्स्टिक' और अंतहीन सास-बहू-बेटियों के पैंतरों में फंसकर रह गया है।
घर-घर में आम सास-बहू की नोंक-झोंक को भारतीय संस्कृति परंपरा से जोड़कर प्रसिद्धि पाने की कोशिश बेहद सफल रही लेकिन अति किसी भी विचारधारा के पतन का पहला कारण है। वास्तविकता दिखाते-दिखाते काल्पनिकता की सारी हदें पार कर जाना भी कहां की समझदारी है। धारावाहिकों में कहीं आलीशान दरो-दरवाजा है तो कहीं मानवीय भावनाओं का भरपूर मखौल उड़ाते हुए मुख्य पात्र को मुसीबतों से हर पल जूझते हुए दिखाया जाता है। छोटे पर्दे की तरह वास्तव में ना तो जीवन इतना आसान और आलीशान है औऱ ना ही मुसीबतों से सराबोर। धारावाहिकों का ये अंधा भटकाव टीआरपी रेटिंग की अंधाधुंध भेड़चाल का ही नतीजा है। अश्लील दृश्य, द्विअर्थी भाषा, गंदे संवाद और प्रेमसंबंधों को भुनाने की कवायद भी इसी कोशिश का घिनौना रूप है। 'चंद्रकांता' जैसा भव्य और प्रसिद्ध धारावाहिक अपनी अश्लीलता के कारण ही बंद हुआ।
दरअसल ये भाषा या बनते-बिगड़ते ये रिश्ते समाज में इतने आम नहीं हैं जितना इन्हें दिखाने की जी-तोड़ कोशिश की जाती है। इसलिए समाज का आइना कहलाने वाला छोटा परदा समाज का वास्तविक स्वरूप दिखाने में नाकामयाब साबित हो रहा है। हां, भारतीय समाज यकीनन बदल रहा है लेकिन यहां मानसिक परिवर्तन की दर भौतिक परिवर्तन से बहुत धीमी है। लोगों की सोच, विचारधारा और जरूरतों से भी तेज छोटे परदे की दुनिया भाग रही है। बार-बार कथित उन्मुक्त समाज की बेलगाम छवि बच्चों को परोसने की वजह से बच्चे इन्हें जीवन से जुड़ी एख सामान्य घटना समझकर गलत संबंधों की तरफ आकर्षित होते हैं लेकिन नतीजा सिफ़र निकलने पर आत्महत्या जैसा चरम कदम उठाने से भी नहीं चूकते।
इस सब के साथ ही नारी की एक बेहद काल्पनिक छवि भी दर्शकों को देखने को मिल रही है। औरत, शांति, अर्धांगिनी जैसे नारी प्रधान धारावाहिकों के बाद तो जैसे भारतीय नारी की कथित आधुनिक छवि को उकेरने की होड़ लग गई। आज नारी या तो सोच से परे की खलनायिका है या फिर अत्याधुनिक सहनशीलता की देवी। या तो तंग कपड़ों में अंग प्रदर्शन करती उन्मुक्त विचारों वाली बाला है या फिर लाज शरम की साड़ी में बेकार रूढ़ियों को बेकार में सहती बेचारी अबला। मतलब साफ है काला या सफेद, किसी भी रूप में नारी की आधुनिक छवि, गढ़ी गई लेखनी का खिलौना बन कर रह गई है। हालांकि तुलसी, पार्वती और कुमकुम के सामने जस्सी और करीना जैसे वास्तविक मिडिल क्लास पात्र मुख्य चुनौती बनकर उभरे तो थे लेकिन फिर ये भी आम हो गया।

Wednesday, July 8, 2009

प्रकृति

प्रकृति को स्त्री का मानवीकृत रूप मानकर सभी पहरों का बचपन से लेकर यौवन तक की कहानी
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फूटे नवल किरण, कर प्रणय आगाज
दिशा-दिशा गुंजित कर छेड़े साज
केसरिया चुनर ओढ़े स्वर्णिम ललाट नार
शरमाती, लहराती कुमकुम संग करे श्रृंगार
बलखाकर छेड़े मृदु सुरों के तार

अगणित रंगों संग सृष्टि सजाती
नैनों से हृदय तक आती
चीर पाषाण, पावन नीर बहाती
मदमस्त पवन अंग-अंग लिपटाती
चटककर कली, कुसुम बन जाती

तेरा अस्तित्व मात्र जीवन आधार
मुख तेज से उज्जवलित संसार
काल चक्र गतिमत करता तेरा आकार
चमकीली धूप आंचल की तेरे
जीवन से लेती साक्षात्कार

रजनी को दुर्लभ रत्न चढ़ाकर
आमंत्रित करती चंद्र बुलाकर
दूर छिपा उसे तके प्रभाकर
कजरारे नैनों से कर निष्क्रिय
जीवट करती, फिर भोर खिलाकर
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