Pages

Monday, October 19, 2009

डर ही तो है...डरता क्यों है

बहुत खुश हूं तो कुछ लिख दूं
दुखी हूं तो कुछ लिख दूं
संतुष्ट हूं तो संतृप्ति का डर
क्यों भला मन रंगता है पन्नों को
इच्छा मन की, दोष कलम का
नाइंसाफी नहीं तो क्या है
फिर करूं भी तो क्या
उलझन की डोर यूं ही नहीं खुलती
लिखते लिखते मोड़ आते हैं
मिलते हैं रास्ते, शब्द जुड़ते हैं
कारवां बनता है
अचानक मंजिल मिल जाती है
फिर... वही संतुष्टि और संतृप्ति का डर
हां, शायद डर ही है
जो प्रेरणा देता है, हौसला बधांता है
कहता है बढ़ता चल
वरना निगल जाऊंगा तुझे
और मैं चलती चली जाती हूं
लिखती चली जाती हूं
डर के गर्भ से नई रचना का जन्म
अदभुत मगर सच
डर मेरे, तेरे सबके भीतर
मानो तो शक्ति, ना मानो तो भूत
..... तो बढ़ता चल... लड़ता चल

Monday, October 12, 2009

आइना... मेरा चेहरा

अरे! आज घर में ये हलचल कैसी ? शायद कोई उत्सव है... हां, इतनी चहल-पहल में भला आज मेरे लिए किसी के पास वक्त ही कहां। ओह! नहीं, शायद मैं गलत हूं... वो दूसरे कमरे से सीमा यहीं चली आ रही है। सीमा तो आज पूर्णिमा के चांद की तरह दमक रही है और गजरा उसके केशों की शोभा को कितना बढ़ा रहा है। हमेशा की तरह आज भी खुशी से चहक रही है। हां, लेकिन आज सीमा के रुख में कुछ बदलाव है। सभ्यता से खड़ी, विशुद्ध भारतीय लिबास में, शर्म का दुपट्टा ओढ़े, खुद को संवारती... जब अनायास ही आंखों से आंखें मिलती हैं तो हल्की सी मुस्कान के साथ सिर झुकाकर मुझसे नजरें फेर लेती है। फिर मुझे छूकर अपनी सुंदरता को मेरे जरिए स्पर्श करती है। और एक जौहरी की तरह अपने गहनों को परखते हुए गर्वांवित महसूस करती है।
"सीमा जल्दी कर, कब से इस आइने के सामने खड़ी खुद को निहारती रहेगी, मेहमान आने ही वाले हैं"। मां के शब्दों को सुनते ही सीमा संभलते हुए जल्दी से उसी दिशा में मुड़ गई और मैं एक बार फिर अपने सूनेपन से जूझने के लिए अकेला छोड़ दिया गया हूं। अब सिर्फ मैं हूं और संग है दीवार पर टंगा लकड़ी का ये ढांचा। हम दोनों तन्हाइयों में एक दूसरे का सहारा भी हैं और साथी भी।
सीमा के जाने से उसका प्रतिबिंब भी मिट गया और मैं फिर अमूर्त हो गया। बिन आकृति मेरा शरीर पारदर्शी कफन पहनी लाश के समान है। सीमा के लिए तो मैं केवल आइना हूं लेकिन मेरे लिए वो अस्तित्व है, संजीवनी है। मेरे सामने खड़े होने से मेरा अस्तित्व उसके शरीर का ही अंग बन जाता है। नहीं तो मैं स्वयं शून्य हूं।
अनिच्छा से इस अजीर्ण शरीर के साथ यहां अचल, स्थिर मैं निराश हूं। प्रतीक्षा के ढेरों पलों को बटोरते बटोरते थक चुका हूं। इंतजार किसी आकृति का, जिसकी प्रतिछाया देगी इस मरी काया को क्षणिक जीवन और एक नई कहानी। सालों से यहां पड़ा मैं परिवार के सदस्यों को निहार रहा हूं। सीमा और अक्षत को तो बचपन की अठखेलियों से जवानी के पड़ाव तक रोते हंसते देखा है। खुशी में चहककर मेरे पास आते और अपनी मीठी मुस्कान बिखेरकर हजारों बार मेरे शरीर में उभरे अपने प्रतिबिंब को चूमकर खुशी जाहिर करते... कभी उदासी में सुबकते हुए न जाने मुझसे कितनी ही बातें कह जाते। वो एक पल मन उनकी खुशी में हरा भी हो जाता और उनके दुख में आंसुओं की गंगा भी बहाता। मन सोचता "भावनाओं के इस उमड़ते सागर को किस तरह शांत करूं। कटे हाथों के इस मूक शरीर से कैसे अपनी खुशी दिखाऊं... कैसे उनके दुख सहलाऊं " ? लेकिन सच तो ये भी है कि अक्षत और सीमा मुझसे नहीं बल्कि खुद से बातें करते हैं। वास्तव में मैं होते हुए भी नहीं हूं। रुप है पर काया नहीं, आकृति है पर अस्तित्व नहीं... हां वस्तु हूं मैं व्यक्ति नहीं....

Wednesday, October 7, 2009

... और दिहाड़ी बढ़ गई

(इस लेख के सभी पात्र काल्पनिक हैं, किसी भी जीवित इंसान के साथ पात्रों की समानता महज़ संयोग होसकता है.... सुखद या दुखद, ये वो इंसान खुद ही तय करे )

....जैसे ही काम पर पहुंची, देखा कि वो लोग जो इधर उधर तफरी मारकर थोड़ा लेट पहुंचते हैं आज समय से पहले ही अवतरित हो गए थे... खुसुर-पुसुर चालू थी,
संजेश (सबसे लंबा लड़का है साइट पर) जोर-जोर से ताली पीटकर तेज़ आवाज में ठहाके लगा रहा था। बाकी की मंडली उसके ठहाकों पर दांत दिखा रही थी। सोचा क्या बातहै, सबकी बत्तीसी दिख रही है। इधर उधर नज़र दौडा़ई तो सज्ञा से नजरें चार हुईं, बोलीं अरे संचन, कैसी हो? मैने कहा ठीक हूं लेकिन यहां ये फव्वारे क्यों छूट रहे हैं? अपनी आदत के अनुसार सज्ञा पास आकर मुझे छूकर कान में बोली, यार सूत्रों से पता चला कि दिहाड़ी बढ़ने वाली है। खबर तो कई दिनों से सुन रही थी चलो आखिरकार ठेकेदार का मन पसीज ही गया, सोचा और कुछ नहीं तो कम से कम रायपुर की मुंह चिढ़ाती सब्जीमंडी से खाने की प्लेट पर सलाद तो सज ही सकता है...
इतने में सरमेंद्र जी गए, वही थोड़ा हैरान, परेशान लेकिन मुस्कुराते हुए बोले चलो थोड़े दिन और 'दिल्ली चलो' अभियान पर रोक लगाई जा सकती है। फिर दोनों हथिलियों से जोरदार ताली का पटाखा फोड़ते हुए पूछा
" कोई बता सकता है कि दिहाड़ी में कितना इजाफा होगा" तभी छुटकू सादिनाथ तपाक से बोला कर्म करो फल की चिंता काहे करते हो मानव। सरमेंद्र जी अपना सा मुंह बनाकर चुप हो गए। वहीं थोड़ी दूर हथेली पर तम्बाकू पर चूना रगड़ते हुए नौरव जी ये सब देख मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। उनके बगल में ही खड़े सिसांत ने भारी अक्कखड़ आवाज में पूछा क्यों सर जी खुश तो बहुत होंगे आप आज। नौरव जी बोले काहे ना हों भाई, घर-परिवार है हमारा, पइसा तो बढ़ना ही चाहिए ना। सब कुछ ना कुछ फेंक रहे थे तो अपने संजीव जी के पेट में भी बुलबुले उठने शुरू हो गए, अपने चिर परिचित अंदाज में मुंह बनाकर बोले, और कछु होए के झन होए... ये बार मैं टूरी के ददा ल हौ कई देहंव... (पैसे बढ़ने के बाद मैं इस बार लड़की के बाप को हां जरूर कह दूंगा) अब तो मेरी हंसी छूट गई। तो पास खड़े जिराफ, अरे वही अपने सत्येंद्र जी बोले मइडम जी आप इस बार तो मिठाई जरूर खिलाएगा नहीं तो हम सीधे बिहार टपक पड़ेंगे मिठाई खाने। उन्ही के साथ काम करने वाली सुची बात बीच में ही काटकर बोल पड़ी हां हां, इतना कड़वा जो बोलते हैं, इनका तो मुंह मीठा होना ही चाहिए। लापरवाही से अंगड़ाई लेकर भौएं ताने सनहर बोला देखिए मैडम जी जान लगाकर काम में जुटा रहता हूं, तो पान बीड़ी के लिए पइसा तो बढ़ना चाहिए ही ना.... भाई लोगों की खुशी में पता ही नहीं चला कि शाम के पांच कब बज गए। सब काम में जुटे थे कि अचानक कोई जोर से चिल्लाया लो बढ़ गई दिहाड़ी। लो कर लो बात... नजरें उठाईं तो सब सन्न थे। सभी एक दूसरे के चेहरे पर नजरें गढ़ाए प्रतिक्रिया जानने की चाह में थे। सजीत ने सुर्री छोड़ी, भई ये तो महंगाई में मजाक हो गया। तो कोई बोला आज ही नई तिजोरी खरीद लाऊंगा, आखिर इतना पैसा रखूंगा कहां। किसी ने चुप रहना ही बेहतर समझा। बोलते भी कैसे, प्यार से भिगोकर जो धर दिया था मुंह पर... फकत पांच रुपए बढ़ी दिहाड़ी हमारी....