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Tuesday, August 4, 2009




राखी का आना... उफ
उसका शरमाना... उफ
चलना, बतियाना... उफ... उफ... उफ
जान ही ले लेती है...... जानते ही होंगे किसकी? अरे भई उन सभी जवान लेकिन कम अक्ल कुवारों की जो स्वयंवर में उसके सपनों के राजकुमार बनकर कैमरे की आंख से आंख मिलाते दिखे। क्योंकि आपके और मेरे लिए तो बस खीसे निपोरने जैसी स्थिति रहती है उसे टीवी पर देखना। कसम से फुलटू ड्रामा है ये लड़की।
'मेरी मरजी' की धुन पर थिरकती आज की पीढ़ी की अगुवाई करती राखी, सच में मीडिया की दत्तक बेटी है। बल्कि उसे मडिया की दत्तक कमाऊ बेटी बुलाना ज्यादा सटीक है। खुद भी कमाती है और अपने पैरेंट्स (मीडिया) की भी जेब भरती है। क्या बुराई है यार। नकली भावनाएं, नकली आंसू, नकली हरकतों से सजी धजी ये दुल्हन जब स्टेज पर असली फूलों से गुंथी वरमाला लेकर खड़ी होती है... तो बस प्रोग्राम हिट। एक घंटे जमकर हंसिए, खिलखलाइए और सारी टेंशन भूल जाइए। बस जरा ध्यान रखिएगा... कहीं सामने सोफे पर बैठी स्वयंवर कार्यक्रम पर नज़र गढ़ाए आपकी बिटिया रानी, राखी मेमसाब को अपना रोलमॉडल मानकर उसके नक्शेकदमों पर ना चलने लगे। अब ये तो आपको ही देखना है इसकी जिम्मेदारी मीडिया क्यों ले।
राखी को लेकर मेरी भावनाओं को ग़लत ना ही समझा जाए तो अच्छा है क्योंकि वो जो है उसके पीछे कहीं ना कहीं हम-आप ही हैं। वो तमाशा करती है और हम देखते हैं... कम कौन है, कोई नहीं। तमाशे को तमाशबीन की तालियां ही बढ़ावा देती हैं जो आप और हम करते हैं और करेंगे भी। क्योंकि रिएलिटी शो में जिंदगी की कड़वी रिएलिटी को कोई स्वीकार नहीं कर सकेगा। वो कुंठाए, हताशा, ग्लानि और निराशा, असफलता और तमाम मुश्किलों को झेलकर मुठ्ठी भर सफलता का वो स्वाद... ये सभी क्या देख पाएंगे फिर से। क्या झेल पाएंगे दिनभर की जद्दोजेहद के बाद फिर से सौ फीसदी कठोर धरातल पर दौड़ता वो मन। अब मान भी जाइए कि अपनी कड़वी सच्चाइयों को छुपाने के लिए हमने राखी नाम का एक स्वांग रच दिया है, जिसे अपने परिवार के साथ नहीं तो चुपके-चुपके चोरी छिपे हम देखना पसंद करते हैं। हम हंसते है उस पर नहीं बल्कि खुद पर.......
सच बोल भी दूं तो बोलूं कैसे
दिलो-दिमाग नहीं मुझ जैसे
फक़त
सुरूर है वीरान दिलों का

सच सुनने वाले मिलेंगे कहां ऐसे
सच मानिए नहीं मिलेंगे... और सच के व्यापार के पीछे सच्चाई भी यही है।