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Friday, August 27, 2010

ममता मतलब मां

मां, खुद में परिपूर्ण है ये शब्द। इस शब्द को सुनकर ही मन में आस्था, प्यार और ममता एक साथ हिलोरे लेने लगते हैं। शादी से पहले मेरे लिए मां सिर्फ और सिर्फ जन्म देने वाली कोख का ही नाम था। क्या करूं कि समझ ही इतनी थी। लेकिन विवाह के परिणय सूत्र में बंधने के बाद मस्तिष्क कुछ और खुला। रिश्तों के मायने कुछ और समझ आने लगे। मन की गांठ ढीली पड़ने लगी और मां शब्द का सही अर्थ समझने लगी मैं। शादी के बाद अपना घर परिवार रिश्ते-नाते छोड़कर एक बिल्कुल नए परिवेश में जाकर समाना इतना आसान नहीं होता। लेकिन वहां(मेरे ससुराल में) भी मुझे एक मां मिली। बहुत प्यार करने वाली और मेरा बहुत ख्याल रखने वाली, मेरी सासू मां। आज मेरे लिए मां महज जन्म देने वाली नहीं बल्कि ममता का दूसरा नाम ही मां है। मेरी सासू मां की तबीयत बहुत खराब है, उनका शरीर भी धीरे-धीरे ढलने लगा है। जीवन को समझने का एक नया नजरिया जिसने मुझे दिया वो आज खुद जीवन से हार मान बैठी हैं। सिर्फ उनके जरिए मैने जाना कि आखिर कैसे पराये अपने हो जाते हैं। आखिर क्यों उनके दुख से आपकी आंखे भर आती हैं। मेरी सासू मां ने बहुत कम समय में ही मुझे वो सब कुछ सिखाया जो ताउम्र जीवन को सुगम और सफल बनाने में मेरी मदद करेगा। और सबसे बड़ी चीज जो उन्होने मुझे सिखाई वो है संवेदनशीलता और सब्र, जो परिवार को चलाने के लिए एक बड़ी पूंजी है। बहुत बीमार होने के बावजूद आज भी वो जब लड़खड़ाती जुबान से मुझसे पूछती हैं कि कंचन खाना खाया क्या... बस आंखें नम हो जाती हैं। मां आप जल्दी से ठीक हो जाएं बस ईश्वर से यही एक चीज मांगती हूं...

Sunday, August 22, 2010

जिंदगी ए जिंदगी

जिंदगी तेरे आगाज पर
मैं फिर से जीने लगी हूं
अब अंजाम तू ही देखना
रात की बाहों में पला सपना
भोर के उजास में पैरों तले
कुचला ना जाए, तू देखना
हौसलों से सींचीं मन की बगिया
कहीं बागबां की ठोकर से
उजड़ ना जाए, तू देखना
देखना कि स्वाभिमान की सांसें
यूं ही चलती रहें निरंतर
देखना कि अच्छाई की डगर से
पैर फिसल ना जाए किसी पल
तू ही देखना तुझ पर मेरा भरोसा
कोई लुटेरा ना लूट जाए कहीं
दे गर तू लाख मुश्किलें
तो समझदारी का अमृत भी
मुझ प्यासे रेगिस्तान में हो
तू देखना ए जिंदगी

Thursday, August 12, 2010

भौजी की प्यारी हिंदी

ई तो हद हो गई, हटटटट... बोलते हुए भौजी ने रेडियो का कान जोर से घुमाकर, बंद कर दिया। और पटक दिया एक कोने में। बडबड़ाती हुई भौजी ने चौखट से बाहर कदम रखा ही था कि मैं पहुंच गई, भौजी के हाथ की गरमागरम चाय पीने। भौजी का मूड देखते हुए अपनी मंशा मन में ही दबाते हुए मैने पूछा-

क्यों भौजी कैसी हो? वैसे ठीक तो नहीं लग रही। क्या बात है?

मुंह बनाते हुए भौजी बोली- का बोलें। हिंदी का तो ई लोग बैंड बजा दिए हैं। पहले ईंग्लिश बोलते थे, फिर मुई हिंग्लिश आ गई और अब स्वाधीनता दिवस के अवसर पर सिर्फ और सिर्फ हिंदी बोलने की जिद ठाने बैठे हैं। ये तो वही बात हुई कि ढाबे में वो क्या कहते हैं महंगा विदेशी खाना परोसा जाने लगा है।

मुझे समझ में नहीं आया कि भौजी आखिर नाराज हैं क्यों। भौजी तो हिंदी भाषा की बड़ी हिमायती बनती हैं। मुझे असमंजस में देखकर वो बोली

अरे आजकल एफएम पर हिंदी बोलो आंदोलन चल रहा है। रेडियो वाले हिंदी के शुद्ध शब्द बोलने की कोशिश कर रहे हैं। गधे कहीं के। मोबाइल, टेलीफोन और माइक जैसे शब्दों को भी शुद्ध हिंदी में बोलने की अजीब जिद है। मैं पूछती हूं कि क्यों। आखिर जिन शब्दों को हिंदी भाषा ने खुद में घुला मिला लिया है उन्हें शुद्ध हिंदी में बोलने की जरूरत ही क्या है भला। और फिर ये शब्द बोलने में थोड़ा लंबे और मुश्किल भी हैं।

मैने कहा- हां, भौजी बात तो पते की है। संस्कृत भाषा भी तो इसलिए ही लुप्त हो गई क्योंकि ये हमेशा से ही देवभाषा रही। जनसाधारण की भाषा कभी बन ही नहीं पाई। जनता ने तो उसी भाषा को गले लगाया जिसे बोलने और समझने में उसे परेशानी नहीं आई। जैसे हिंदी। और फिर वक्त के साथ-साथ हिंदी का स्वरूप बदला और हिंदी में उर्दू, फारसी और ईंग्लिश के शब्द समाहित होते गए।

भौजी बोली- इही बात तो हम भी कह रहे हैं। अरे भई एफएम वालों को अपने फोन और एसएमएस से मतलब हैं। हिंदी का भला वो क्या अचार डालेंगे। नाहक ही स्वाधीनता दिवस और हिंदी का मजाक बना के रख दिए हैं। स्वाधीनता दिवस का खुमार उतरा नहीं कि फिर अपनी हिंग्लिश भाषा पर उतर आएंगे। हिंदी किसी के बोलने और ना बोलने की मोहताज थोड़े ही है। हम ये भाषा बोलते हैं क्योंकि इस देश में रहने के नाते ये हमें अपनी सी लगती है। और ईंग्लिश का क्या है। ईंग्लिश तो पैसे कमाने वाली लुगाई की तरह है। उससे प्यार तो करना ही पड़ेगा। कोनो चारा भी तो नहीं है।

मैने कहा- सोलह आने सच बात है भौजी। ये सब तो सरकार को सोचना चाहिए ना। अगर सारा सरकारी काम चीन या जापान की तरह अपनी मातृभाषा में किया जाता तो आज हिंदी की ये दुर्दशा नहीं होती।

मैने बात खत्म भी नहीं की थी कि भौजी हाथ में चाय का प्याला लेकर मेरी तरफ बढ़ी और बोली- काश हिंदी को लोग मजबूरी नहीं, गर्व समझकर अपनाते तो कितना भला होता। और मैं चाय की चुस्कियों के साथ भौजी की कही बात के मर्म में डूब गई।

Thursday, August 5, 2010

... बात समझ में आई कि नहीं

लो जी इन्हें अब पता चला है। मुझे तो ये बात पहले से ही पता थी कि महिलाएं अच्छी पायलट भी हो सकती हैं। और फिर सपनों की उड़ान को महिलाओं से बेहतर गति कौन दे सकता है। पायलटों के सलेक्शन के लिए देश में एक कम्प्यूटराइज्ड मशीन बनी है जिससे ये साबित हुआ है कि महिलाएं पुरुषों से बेहतर उड़ान भर सकती हैं। वैसे एक बात बताऊं ये कम्यूटर-वम्प्यूटर तो अब हुआ है ना। अरे ये मशीन क्या खाक महिलाओं के व्यक्तित्व का खाका खींचेंगीं जब खुद ईश्वर ने ही महिलाओं को एक नायाब तोहफे से नवाजा है। और वो है एक जिंदगी को इस संसार में लाना। है पुरुषों में इतनी ताकत हो तो ये कर के दिखाएं बिना विज्ञान के सहारे। बच्चे को पैदा करने से लेकर उसे पालना, उसकी देखभाल करना क्या कम बड़ा काम है। आज सुष्मिता सेन जैसी सिंगल मदर का कॉन्सेप्ट जब सबके सामने है तो फिर हवाई जहाज उड़ाना क्या बड़ा काम है। महिलाओं को अगर पुरुषप्रधान समाज का शिकार ना होना पड़ता तो मैं कहती हूं कि पुरुष उनके सामने पानी भरते नजर आते। उस पर भी ये महिलाओं का बड़प्पन ही है कि वो आगे नहीं साथ-साथ चलना ही पसंद करती हैं। भारत में अब ये बात शायद समझ आने लगी है कि औरत सिर्फ बच्चा जनने की मशीन भर नहीं है उसमें दिमाग और ताकत दोनों ही है। मैं मानती हूं कि औरतों रचना उन्हें पुरूषों से थोड़ा कमतर ताकतवर बनाती हैं लेकिन मानसिक ताकत उस सब के पार है। तभी तो औरतों को सेना में बड़ी पोस्टों के लिए तैयार किया जा रहा है। अब बताइये औरत कहां नहीं है। घर के किचन से लेकर युद्ध के मैदान में भी वो कल नजर आए तो आश्चर्य क्या। और क्या पता औरतों के सरकारी नौकरी में रहने से भ्रष्टाचार के दलदल से कुछ कीचड़ ही कम हो जाए। पुरुषों के विरोध में ना जाकर मैं एक और बात जरूर कहना चाहूंगी कि अगर कोई औरत सुरेश कलमाड़ी की जगह भारतीय ओलंपिक महासंघ की अध्यक्ष होती तो भारत में कॉमनवेल्थ गेम्स का डंका पीटने के बजाय यकीनन एक बार राष्ट्रीय और स्थानीय खेलों या खिलाड़ियों की दुर्दशा के बारे में जरूर सोचती। औरत सबकुछ कर सकती है ये तो मैं नहीं कहूंगी क्योंकि पुरुष और औरत ही मिलकर समाज का निर्माण कर सकते हैं लेकिन समाज में बराबरी का हक और उचित दर्जा उसे मिलना ही चाहिए। और जितना जल्दी मिल जाए वही लोक कल्याण के लिए बेहतर विकल्प है।