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Sunday, January 17, 2010

सुख... का सवाल

... सोचती हूं, सुख क्या है? सपनों का महल मिल जाना, ऊंची पगार वाली नौकरी, नाम, रुतबा या फिर प्रेमी से मिलन। आखिर क्या है सुख। कभी जिस उद्देश्य के पीछे मन बहुत देर से भाग रहा होता है और वो चीज हाथ में आ जाए तो मन खुश लेकिन फिर दूसरा उद्देश्य, कुछ और चाहत और एक नई मंजिल।
कहां ना जाने कहां भागता है मन। कभी किसी के टॉप क्लास ब्रांडेड कपड़ों में अटक जाता है तो कभी किसी के खूबसूरत घर पर... तो कभी लगता है कि कोई खास आपकी भावनाओं को बिन बोले ही समझ जाए। और ना समझे तो खीझ और झुंझलाहट से मन भर जाता है। यार इतनी इच्छाएं करता ही क्यों है मन। भौतिकवाद है, सब समझते हैं लेकिन ये जो मन है ना मानता ही नहीं। सब चाहिए इसे सब तब भी अधूरा, खाली खाली सा और प्यासा ही दिखता है। बस भागता रहता है एक को छोड़कर दूसरे की तरफ और दूसरे से ना जाने कहां-कहां? आकांशाओं और इच्छाओं की अंधाधुंध दौड़ आखिरकार अंधकार में पटक देती है... बहुत समझदार होते हुए भी शायद खुद से या दूसरों से लगाई गई अति इच्छाओं के बोझ से बौरा जाता है ये मन। अकेलेपन की कीचड़ से सना शरीर और अवसाद भरा मन लिए फिर इंसान कहीं जाने के लायक नहीं रह जाता। पहले तो उसे सामने खड़ी खुशी नहीं दिखती है बेकाबू मन को खुले सांड की तरह यहां वहां दौड़ने की छूट दे दी जाती है और फिर जब मन संभाले नहीं संभलता तो धोबी का कुत्ता बन जाते हैं। मेरे ख्याल से भागते मन का एक ही तोड़ है संतुष्टि। संतुष्ट रहकर पल पल का मजा लीजिए। जो है उसी में खुश रहिए। लेकिन फिर सोचती हूं कि संतुष्टि विकास के रास्ते में रोड़ा ना बन जाए। भई अब ये आपके ऊपर है कि कितना संतुष्ट रहकर आप विकास की गाड़ी में धक्का लगा सकते हैं... खैर... लगता है बहुत सोचती हूं... ना सोचूं भी तो क्या, कुछ नहीं लेकिन फिर मन में फंसी गांठ मुझे ही छीलकर रख देगी...