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Thursday, August 12, 2010

भौजी की प्यारी हिंदी

ई तो हद हो गई, हटटटट... बोलते हुए भौजी ने रेडियो का कान जोर से घुमाकर, बंद कर दिया। और पटक दिया एक कोने में। बडबड़ाती हुई भौजी ने चौखट से बाहर कदम रखा ही था कि मैं पहुंच गई, भौजी के हाथ की गरमागरम चाय पीने। भौजी का मूड देखते हुए अपनी मंशा मन में ही दबाते हुए मैने पूछा-

क्यों भौजी कैसी हो? वैसे ठीक तो नहीं लग रही। क्या बात है?

मुंह बनाते हुए भौजी बोली- का बोलें। हिंदी का तो ई लोग बैंड बजा दिए हैं। पहले ईंग्लिश बोलते थे, फिर मुई हिंग्लिश आ गई और अब स्वाधीनता दिवस के अवसर पर सिर्फ और सिर्फ हिंदी बोलने की जिद ठाने बैठे हैं। ये तो वही बात हुई कि ढाबे में वो क्या कहते हैं महंगा विदेशी खाना परोसा जाने लगा है।

मुझे समझ में नहीं आया कि भौजी आखिर नाराज हैं क्यों। भौजी तो हिंदी भाषा की बड़ी हिमायती बनती हैं। मुझे असमंजस में देखकर वो बोली

अरे आजकल एफएम पर हिंदी बोलो आंदोलन चल रहा है। रेडियो वाले हिंदी के शुद्ध शब्द बोलने की कोशिश कर रहे हैं। गधे कहीं के। मोबाइल, टेलीफोन और माइक जैसे शब्दों को भी शुद्ध हिंदी में बोलने की अजीब जिद है। मैं पूछती हूं कि क्यों। आखिर जिन शब्दों को हिंदी भाषा ने खुद में घुला मिला लिया है उन्हें शुद्ध हिंदी में बोलने की जरूरत ही क्या है भला। और फिर ये शब्द बोलने में थोड़ा लंबे और मुश्किल भी हैं।

मैने कहा- हां, भौजी बात तो पते की है। संस्कृत भाषा भी तो इसलिए ही लुप्त हो गई क्योंकि ये हमेशा से ही देवभाषा रही। जनसाधारण की भाषा कभी बन ही नहीं पाई। जनता ने तो उसी भाषा को गले लगाया जिसे बोलने और समझने में उसे परेशानी नहीं आई। जैसे हिंदी। और फिर वक्त के साथ-साथ हिंदी का स्वरूप बदला और हिंदी में उर्दू, फारसी और ईंग्लिश के शब्द समाहित होते गए।

भौजी बोली- इही बात तो हम भी कह रहे हैं। अरे भई एफएम वालों को अपने फोन और एसएमएस से मतलब हैं। हिंदी का भला वो क्या अचार डालेंगे। नाहक ही स्वाधीनता दिवस और हिंदी का मजाक बना के रख दिए हैं। स्वाधीनता दिवस का खुमार उतरा नहीं कि फिर अपनी हिंग्लिश भाषा पर उतर आएंगे। हिंदी किसी के बोलने और ना बोलने की मोहताज थोड़े ही है। हम ये भाषा बोलते हैं क्योंकि इस देश में रहने के नाते ये हमें अपनी सी लगती है। और ईंग्लिश का क्या है। ईंग्लिश तो पैसे कमाने वाली लुगाई की तरह है। उससे प्यार तो करना ही पड़ेगा। कोनो चारा भी तो नहीं है।

मैने कहा- सोलह आने सच बात है भौजी। ये सब तो सरकार को सोचना चाहिए ना। अगर सारा सरकारी काम चीन या जापान की तरह अपनी मातृभाषा में किया जाता तो आज हिंदी की ये दुर्दशा नहीं होती।

मैने बात खत्म भी नहीं की थी कि भौजी हाथ में चाय का प्याला लेकर मेरी तरफ बढ़ी और बोली- काश हिंदी को लोग मजबूरी नहीं, गर्व समझकर अपनाते तो कितना भला होता। और मैं चाय की चुस्कियों के साथ भौजी की कही बात के मर्म में डूब गई।