Pages

Tuesday, May 13, 2014

कुछ सच्चाईयां...

लिखने का कुछ मन तो है
पर रचना का आकार
ना जाने क्या होगा?
क्या होगा जब
मन की किताब से धूल झड़ेगी,
और पन्नों का तब हाल
ना जाने क्या होगा?
मेरे सपनों का वो अनुपम संसार
मेरी अपनी दुनिया, इस दुनिया से पार
मेरे अस्तित्व के संघर्ष की कथा
कभी कैद, कभी स्तब्ध
अंजान, गुमसुम सी व्यथा
कह तो दूं सब कुछ मगर,
दिल में दबे उस राज के
रौशन हो जाने के बाद
ना जाने क्या होगा?  
क्या हो गर मन दे आदेश 
लेकिन अक्षर ही बगावत कर दें
ना लिखने दें, ना कहने दें
अवसाद को अविरल ना बहने दें
सोचती हूं कि डर किसका ज्यादा है
अन्जानों का या अपनों का
या फिर अपनों से बंध चुके
मेरे ही कुछ सपनों का
फिर सोचा क्यों ना तन्हा ही
इस किताब के पन्ने पलट लूं
ढके, छिपे उस कठोर सत्य
से टरकाने का अंजाम
ना जाने क्या होगा...