Pages

Friday, August 28, 2009

तन्हाई की कलम से....



घर से दूर रहने के बाद दो बातों का अहसास और अहमियत बखूबी हुआ है मुझे... एक परिवार और दूसरा अकेलापन। पहली बार अहसास हुआ कि तन्हाई उपजाऊ भी हो सकती है...
------------------------------------------------------------------------------------------------
चार दीवारी की अदृश्य शक्ति
चढ़ती-उतरती सांसों की प्रेरणा
तन्हा दिन और बोरिंग रातों की
नमी स्याही बन गई
भावनाएं शब्दों का रूप लेने लगीं
मन कलम बन गया और
शरीर एक आत्मा
फिर क्या था
जो तन्हाई कहती, आत्मा वही करती
शब्दों के कोंपल फूटने लगे
तब समझ में आया
अकेलापन उपजाऊ है
बंजर मन की धरा पर भी
रचनात्मकता की फसल उग सकती है
आज फिर वही रात है
तन्हाई हल लेकर निकल पड़ी है
और रचना की लहलहाती फसल उग गई

यूं ही कभी तन्हाई, बावरी पवन से जा टकराती
थोड़ी नोंक-झोंक, थोड़ी तू-तू मैं-मैं
फिर गुपचुप सुलह हो जाती
और उसकी लहराती जुल्फें
मेरे तन से लिपट जातीं
सांत्वनां बंधाती मेरी अपनी बनकर
वो चुप सुनती, मैं ढेरों बातें करती
अपनी हरियाली मेरी आत्मा में
उड़ेलकर तड़पते मन को शान्त कर देती
हां... मैं लेकर सुखी
और वो देकर खुश.......
..जीवन के सुरों से टकराकर तन्हाई तरन्नुम बन गई...






Friday, August 21, 2009

मीडिया को मोतियाबिंद

हां... देख तो पाता है लेकिन आंखों की ज्योति धुंधलाती जा रही है... हिन्दी मीडिया एक बिगड़ैल युवा बन गया है। युवा इसलिए क्योंकि आज तक भारत में मीडिया को शैशव काल में विस्तार और आकार लेता शिशु ही माना जाता रहा है। १०-१२ साल के बदलावों पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि ये बच्चा अतिउत्साह में बिगड़ गया है। जो भावशून्य तो था ही अब देखने समझने की शक्ति भी खोता जा रहा है। बुधवार १०/०८/०९ दो बड़ी खबरें आईं... एक जसवंत सिंह के निजी विचारों से सजी किताब पर पार्टी से उनकी सियासी कुट्टी की और दूसरा देश में महंगाई और सूखा पर सरकार के बयान की। मीडिया ने सियासत की गर्मी तो टीवी स्क्रीन पर घंटों उतारा लेकिन अफसोस किसान और बेचारी जनता का महंगाई के डंक से ठंडा पड़ा जिस्म लावारिस ही छोड़ दिया। एक बिग ब्रेकिंग और एक शायद किसी किसी चैनल ने महज एक पैकेज महंगाई के नाम समर्पित कर दिया गया। दिन भर जसवंत के इन आउट को लेकर माहौल गर्माया रहा... जिस बात से देश के अन्नदाता को रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ता... उसी से टीवी स्क्रीन रंगे हुए थे। एक किसान, मजदूर को पेट और परिवार के सिवाय फुर्सत ही कहां है भला। क्यूं नहीं पूछा गया सरकार से कि कहां कई वादों की वो पोटली जो किसानों को सूखा राहत देने के लिए सरकारी कोष में सड़ रही है। आखिर कब तक किसान आसमां की तरफ सिर किए बादलों से मिन्नत करता रहेगा। क्यों सिंचाई के लिए किए जा रहे सरकारी प्रयास कामयाब होते नहीं दिख रहे हैं। मुंह चिढ़ाते आलू, टमाटर और आंख दिखाती सब्जीमंडी को बेचारा आम इंसान किस तरह से झेलता है उसका गैरतमंद मन ही जानता है। राजनेताओं का ये ड्रामा तो रोज की बात है... अतिवादिता का शिकार बीजेपी की विचारधारा को एक ना एक दिन बदलना ही पड़ेगा। लेकिन आखिर मीडिया क्यों अतिवादी बनता जा रहा है... इसे तो इंद्रधनुष की तरह दुख-सुख, गली-कूचों और जमीन आसमान से रंग चुरा कर परदे पर फैंकने चाहिए... डरती हूं कि अभी तो बस सियासी मोतियाबिंद का शिकार हुआ है मीडिया... जल्द ही कहीं हार्टअटैक ना आ जाए इसे....

Friday, August 7, 2009

....क्योंकि सवाल टीआरपी का है

........मीडिया मित्रगणों को समर्पित........









बोलो
ना कुछ पर कुछ आवाज जरूरी है
आंख बंद भी कर दो पर अहसास जरूरी है
शोर करना ही उद्देश्य हो सही पर
सरसरी पर सनसनी का लबादा जरूरी है

आवाज है आवाम की तू, समझ ले इसे
खुद के लिए निरीह सही पर
बेकसूरों की आह सुनाना जरूरी है

बोल कौन देखना चाहेगा

तिल-तिल बिखरता जीवन तेरा
कि 24 x7 परदे
सलाम जिंदगी गुनगुनाना जरूरी है

तूने खाया ना खाया क्या मतलब किसे
दिनभर की हलचलों को तफतीश से
नौ की बात में बताना जरूरी है

परिवार की सुध हो ना हो सही
खबरों की खबर लेनी है तुझे
भड़कीली साड़ियों का वो
जलवा
सास-बहू-साजिश के जरिए
घर-घर पहुंचाना जरूरी है

कब थमा दें प्यार भरा इस्तीफा तुझे
सो सबसे तेज़, सबसे ख़ास
अंदाज भरा तेरा आगाज़ जरूरी है

धूप-छांव, बारिश क्या चीज़ है नाचीज़
समझ ले तू कि जोकर है उनके लिए
चाहे कितना भी ढीठ हो, थाम डुगडुगी
खबरिया बंदर नचाना बेहद जरूरी है
-------------------------------------

Tuesday, August 4, 2009




राखी का आना... उफ
उसका शरमाना... उफ
चलना, बतियाना... उफ... उफ... उफ
जान ही ले लेती है...... जानते ही होंगे किसकी? अरे भई उन सभी जवान लेकिन कम अक्ल कुवारों की जो स्वयंवर में उसके सपनों के राजकुमार बनकर कैमरे की आंख से आंख मिलाते दिखे। क्योंकि आपके और मेरे लिए तो बस खीसे निपोरने जैसी स्थिति रहती है उसे टीवी पर देखना। कसम से फुलटू ड्रामा है ये लड़की।
'मेरी मरजी' की धुन पर थिरकती आज की पीढ़ी की अगुवाई करती राखी, सच में मीडिया की दत्तक बेटी है। बल्कि उसे मडिया की दत्तक कमाऊ बेटी बुलाना ज्यादा सटीक है। खुद भी कमाती है और अपने पैरेंट्स (मीडिया) की भी जेब भरती है। क्या बुराई है यार। नकली भावनाएं, नकली आंसू, नकली हरकतों से सजी धजी ये दुल्हन जब स्टेज पर असली फूलों से गुंथी वरमाला लेकर खड़ी होती है... तो बस प्रोग्राम हिट। एक घंटे जमकर हंसिए, खिलखलाइए और सारी टेंशन भूल जाइए। बस जरा ध्यान रखिएगा... कहीं सामने सोफे पर बैठी स्वयंवर कार्यक्रम पर नज़र गढ़ाए आपकी बिटिया रानी, राखी मेमसाब को अपना रोलमॉडल मानकर उसके नक्शेकदमों पर ना चलने लगे। अब ये तो आपको ही देखना है इसकी जिम्मेदारी मीडिया क्यों ले।
राखी को लेकर मेरी भावनाओं को ग़लत ना ही समझा जाए तो अच्छा है क्योंकि वो जो है उसके पीछे कहीं ना कहीं हम-आप ही हैं। वो तमाशा करती है और हम देखते हैं... कम कौन है, कोई नहीं। तमाशे को तमाशबीन की तालियां ही बढ़ावा देती हैं जो आप और हम करते हैं और करेंगे भी। क्योंकि रिएलिटी शो में जिंदगी की कड़वी रिएलिटी को कोई स्वीकार नहीं कर सकेगा। वो कुंठाए, हताशा, ग्लानि और निराशा, असफलता और तमाम मुश्किलों को झेलकर मुठ्ठी भर सफलता का वो स्वाद... ये सभी क्या देख पाएंगे फिर से। क्या झेल पाएंगे दिनभर की जद्दोजेहद के बाद फिर से सौ फीसदी कठोर धरातल पर दौड़ता वो मन। अब मान भी जाइए कि अपनी कड़वी सच्चाइयों को छुपाने के लिए हमने राखी नाम का एक स्वांग रच दिया है, जिसे अपने परिवार के साथ नहीं तो चुपके-चुपके चोरी छिपे हम देखना पसंद करते हैं। हम हंसते है उस पर नहीं बल्कि खुद पर.......
सच बोल भी दूं तो बोलूं कैसे
दिलो-दिमाग नहीं मुझ जैसे
फक़त
सुरूर है वीरान दिलों का

सच सुनने वाले मिलेंगे कहां ऐसे
सच मानिए नहीं मिलेंगे... और सच के व्यापार के पीछे सच्चाई भी यही है।