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Wednesday, December 30, 2009

कमाल का 'अवतार'


साफ... स्वच्छ... निश्चल और स्पष्ट 'अवतार'... जी हां, फिल्म के आइडिया की बात कर रही हूं। कई के दृष्टिकोणों से फिल्म जांचने के बाद सबसे पहला मूल्यांकन विचार का ही करूंगी। अवतार का आइडिया ही खुद में पवित्रता समेटे हुए है। एक आम दर्शक की नज़र से फिल्म देखने पर कुल मिलाकर सब कुछ अच्छा लगा। कह सकते हैं खूबसूरत आत्मा में पिरोई गई नग्न सुंदर काया वाली फिल्म है अवतार। ये फिल्म आपको प्रकृति के करीब ले जाएगी। क्रंकीट के जंगलों में खोए लगातार दौड़ने वाले खिलाड़ी को ये फिल्म... पैसे की दौड़ में पीछे छूट रही प्रकृति को देखने और महसूस करने की समझ देती है... बताती है कि छोटे से पेंडोरा को कोपेनहेगेन के राक्षसों से खतरा है जो अपनी ऊंची रखने की खातिर मासूम प्रकृति को अनदेखा कर रहे हैं। कुछ और बातें हैं जिन्होने खासतौर से मुझे आकर्षित किया। तन पर वस्त्र ना होते हुए भी नीली स्वच्छ काया वाले लोग अश्लील नहीं लगते। गाय सा मासूम चेहरा और पानी सा साफ मन। प्रकृति की ही तरह रहस्यमय खूबसूरती में लिपटे लोगों की तुलना कपड़ों वाले इंसान से करना बेकार है। फिल्म का एक पात्र पेंडोरा के लोगों को नीला बंदर कहकर बुलाता है। मन में आया कि ये नीले बंदर हमसे कितने अच्छे और समझदार हैं। लोग कहते हैं कि कम कपड़ों में लड़की अश्लील लगती है और काम वासना को आमंत्रित करती है। उन सभी बेअक्लों को मेरी सलाह है कि एक बार अवतार जरूर देखें। प्रकृति को प्रणाम करने की खातिर निर्देशक ने 1200 करोड़ जरूर फूंके, लेकिन शायद ये जरूरी था... बेहद जरूरी। और अब जरूरत है प्रकृति से फिल्म के पात्रों का जो रिश्ता है उसे समझने की। खुद में उतारने की।

Monday, November 9, 2009

...सुनो लोगों

हां, और नहीं तो क्या, अब ये तो होना ही था... कलेजे में पड़ गई ना ठंडक, बचपन से पढ़ा होगा कि बोए पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए... लेकिन अक्ल ही अगर घास चरने गई हो तो फैसले कैसे लिए जा सकते हैं. विधानसभा में अपनी आवाज बनाकर दबंगों और गुंड़ों को भेजेंगे तो वहां विकास की तान तो छिड़ेगी नहीं, हां अलबत्ता गालीगलौज के सुर जरूर बुलंद हो सकते हैं, जैसा कि आज हुआ... आपको ये बात समझ में आती नहीं या समझना नहीं चाहते. जिन लोगों ने आज मातृभाषा का अपमान किया, विधानसभा में खुलेआम गुंडागर्दी दिखाई, स्पीकर की बेइज्जती करने के आम हो चुके नजारे को एक बार फिर दोहराया... मैं पूछती हूं कि उन्हें विधानसभा के गलियारों में पहुंचाया ही किसने... आपने ही ना॥ पहले से ही राज ठाकरे ने क्षेत्रियता की तुच्छ राजनीति के सहारे पूर्वांचलवासियों को बहुत सताया, उनसे मारपीट तक की। महाराष्ट्र छोड़ने की धमकी तक दी। हां शायद, तब आपकी समझ में क्यों आएगा? शरीर पर जख्म खाने वाला आपका कोई अपना नहीं था ना। वो तो यूपी या बिहार के थे, आपसे आपका हक...आपकी नौकरी छीनने के लिए महाराष्ट्र आए थे। लेकिन ये क्यों नहीं समझ में आया आपकी कि जिस राजठाकरे ने 'राज' की खातिर अपने रिश्तेदारों से खिलाफ ही बगावत का बिगुल फूंक दिया था वो नीति में नहीं सिर्फ और सिर्फ 'राज' का भूखा है। जानते तो आप ये भी थे कि खुद बालठाकरे और राजठाकरे मूलत: महाराष्ट्र के नहीं है। अरे जो अपने राज्य, अपने कुनबे का ना हो सका वो आपका क्या होगा। और आखिर क्यों होगा? उसे मतलब सत्ता से सत्तासुख से। आपको अपने बारे में तो सोचना चाहिए। वो क्यों आपके मुद्दे सदन में उठाएंगे और जनाब वक्त ही कहां है उनके पास ऐसे फालतू के कामों के लिए। बड़ा मुद्दा तो ये बन जाता है कि शपथ मातृभाषा हिंदी में क्यों ली जा रही है. सड़क और बसों में तो हिंदी बोलने में युवा पीढ़ी को शर्म आती ही है और अब तो औपचारिकता के लिए भी हिंदी बर्दाश्त नहीं हो रही है इन कपूतों। दोष इनका नहीं है दोषी आप हैं जिन्होने ऐसे गुंडों को चुनकर सदन में। सिर्फ एमएनएस की ही बात नहीं, मैं बात कर रही हूं संसद में बैठे तमाम गुनाहगारों की जो सत्ता की आड़ में शक्ति के मद में चूर बैठे हैं। वो बेवकूफ बनाते रहे और आप बनते रहे। अरे इस देश के पहले ही दो फाड़ हो चुके हैं। आज तक उस चोट का जख्म रिस रहा है और अब राज्य, क्षेत्र, मजहब और जाति की राजनीति की रोटियां सेक रहे नेताओं का जमाना है। शर्म बेचकर खा चुके ये गुंडे सदन या संसद में सिर्फ शोर मचाने के लिए जाते हैं। सदन में सत्र के पहले दिन उन्होने अपनी मंशा जाहिर कर दी। शर्म की बात ये तो भी है कि आज ही के दिन बर्लिन की मजबूत दीवार गिराकर जर्मनी को एकसूत्र में बांधने की पहल हुई थी और आज ही के दिन हिंदी-मराठी के नाम पर देश के टुकड़े करने की साजिश रची गई।
सुनिए और समझिए.... इस धरती के टुकड़े-टुकड़े होने से पहले जाग जाइए नहीं तो...

Monday, October 19, 2009

डर ही तो है...डरता क्यों है

बहुत खुश हूं तो कुछ लिख दूं
दुखी हूं तो कुछ लिख दूं
संतुष्ट हूं तो संतृप्ति का डर
क्यों भला मन रंगता है पन्नों को
इच्छा मन की, दोष कलम का
नाइंसाफी नहीं तो क्या है
फिर करूं भी तो क्या
उलझन की डोर यूं ही नहीं खुलती
लिखते लिखते मोड़ आते हैं
मिलते हैं रास्ते, शब्द जुड़ते हैं
कारवां बनता है
अचानक मंजिल मिल जाती है
फिर... वही संतुष्टि और संतृप्ति का डर
हां, शायद डर ही है
जो प्रेरणा देता है, हौसला बधांता है
कहता है बढ़ता चल
वरना निगल जाऊंगा तुझे
और मैं चलती चली जाती हूं
लिखती चली जाती हूं
डर के गर्भ से नई रचना का जन्म
अदभुत मगर सच
डर मेरे, तेरे सबके भीतर
मानो तो शक्ति, ना मानो तो भूत
..... तो बढ़ता चल... लड़ता चल

Monday, October 12, 2009

आइना... मेरा चेहरा

अरे! आज घर में ये हलचल कैसी ? शायद कोई उत्सव है... हां, इतनी चहल-पहल में भला आज मेरे लिए किसी के पास वक्त ही कहां। ओह! नहीं, शायद मैं गलत हूं... वो दूसरे कमरे से सीमा यहीं चली आ रही है। सीमा तो आज पूर्णिमा के चांद की तरह दमक रही है और गजरा उसके केशों की शोभा को कितना बढ़ा रहा है। हमेशा की तरह आज भी खुशी से चहक रही है। हां, लेकिन आज सीमा के रुख में कुछ बदलाव है। सभ्यता से खड़ी, विशुद्ध भारतीय लिबास में, शर्म का दुपट्टा ओढ़े, खुद को संवारती... जब अनायास ही आंखों से आंखें मिलती हैं तो हल्की सी मुस्कान के साथ सिर झुकाकर मुझसे नजरें फेर लेती है। फिर मुझे छूकर अपनी सुंदरता को मेरे जरिए स्पर्श करती है। और एक जौहरी की तरह अपने गहनों को परखते हुए गर्वांवित महसूस करती है।
"सीमा जल्दी कर, कब से इस आइने के सामने खड़ी खुद को निहारती रहेगी, मेहमान आने ही वाले हैं"। मां के शब्दों को सुनते ही सीमा संभलते हुए जल्दी से उसी दिशा में मुड़ गई और मैं एक बार फिर अपने सूनेपन से जूझने के लिए अकेला छोड़ दिया गया हूं। अब सिर्फ मैं हूं और संग है दीवार पर टंगा लकड़ी का ये ढांचा। हम दोनों तन्हाइयों में एक दूसरे का सहारा भी हैं और साथी भी।
सीमा के जाने से उसका प्रतिबिंब भी मिट गया और मैं फिर अमूर्त हो गया। बिन आकृति मेरा शरीर पारदर्शी कफन पहनी लाश के समान है। सीमा के लिए तो मैं केवल आइना हूं लेकिन मेरे लिए वो अस्तित्व है, संजीवनी है। मेरे सामने खड़े होने से मेरा अस्तित्व उसके शरीर का ही अंग बन जाता है। नहीं तो मैं स्वयं शून्य हूं।
अनिच्छा से इस अजीर्ण शरीर के साथ यहां अचल, स्थिर मैं निराश हूं। प्रतीक्षा के ढेरों पलों को बटोरते बटोरते थक चुका हूं। इंतजार किसी आकृति का, जिसकी प्रतिछाया देगी इस मरी काया को क्षणिक जीवन और एक नई कहानी। सालों से यहां पड़ा मैं परिवार के सदस्यों को निहार रहा हूं। सीमा और अक्षत को तो बचपन की अठखेलियों से जवानी के पड़ाव तक रोते हंसते देखा है। खुशी में चहककर मेरे पास आते और अपनी मीठी मुस्कान बिखेरकर हजारों बार मेरे शरीर में उभरे अपने प्रतिबिंब को चूमकर खुशी जाहिर करते... कभी उदासी में सुबकते हुए न जाने मुझसे कितनी ही बातें कह जाते। वो एक पल मन उनकी खुशी में हरा भी हो जाता और उनके दुख में आंसुओं की गंगा भी बहाता। मन सोचता "भावनाओं के इस उमड़ते सागर को किस तरह शांत करूं। कटे हाथों के इस मूक शरीर से कैसे अपनी खुशी दिखाऊं... कैसे उनके दुख सहलाऊं " ? लेकिन सच तो ये भी है कि अक्षत और सीमा मुझसे नहीं बल्कि खुद से बातें करते हैं। वास्तव में मैं होते हुए भी नहीं हूं। रुप है पर काया नहीं, आकृति है पर अस्तित्व नहीं... हां वस्तु हूं मैं व्यक्ति नहीं....

Wednesday, October 7, 2009

... और दिहाड़ी बढ़ गई

(इस लेख के सभी पात्र काल्पनिक हैं, किसी भी जीवित इंसान के साथ पात्रों की समानता महज़ संयोग होसकता है.... सुखद या दुखद, ये वो इंसान खुद ही तय करे )

....जैसे ही काम पर पहुंची, देखा कि वो लोग जो इधर उधर तफरी मारकर थोड़ा लेट पहुंचते हैं आज समय से पहले ही अवतरित हो गए थे... खुसुर-पुसुर चालू थी,
संजेश (सबसे लंबा लड़का है साइट पर) जोर-जोर से ताली पीटकर तेज़ आवाज में ठहाके लगा रहा था। बाकी की मंडली उसके ठहाकों पर दांत दिखा रही थी। सोचा क्या बातहै, सबकी बत्तीसी दिख रही है। इधर उधर नज़र दौडा़ई तो सज्ञा से नजरें चार हुईं, बोलीं अरे संचन, कैसी हो? मैने कहा ठीक हूं लेकिन यहां ये फव्वारे क्यों छूट रहे हैं? अपनी आदत के अनुसार सज्ञा पास आकर मुझे छूकर कान में बोली, यार सूत्रों से पता चला कि दिहाड़ी बढ़ने वाली है। खबर तो कई दिनों से सुन रही थी चलो आखिरकार ठेकेदार का मन पसीज ही गया, सोचा और कुछ नहीं तो कम से कम रायपुर की मुंह चिढ़ाती सब्जीमंडी से खाने की प्लेट पर सलाद तो सज ही सकता है...
इतने में सरमेंद्र जी गए, वही थोड़ा हैरान, परेशान लेकिन मुस्कुराते हुए बोले चलो थोड़े दिन और 'दिल्ली चलो' अभियान पर रोक लगाई जा सकती है। फिर दोनों हथिलियों से जोरदार ताली का पटाखा फोड़ते हुए पूछा
" कोई बता सकता है कि दिहाड़ी में कितना इजाफा होगा" तभी छुटकू सादिनाथ तपाक से बोला कर्म करो फल की चिंता काहे करते हो मानव। सरमेंद्र जी अपना सा मुंह बनाकर चुप हो गए। वहीं थोड़ी दूर हथेली पर तम्बाकू पर चूना रगड़ते हुए नौरव जी ये सब देख मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। उनके बगल में ही खड़े सिसांत ने भारी अक्कखड़ आवाज में पूछा क्यों सर जी खुश तो बहुत होंगे आप आज। नौरव जी बोले काहे ना हों भाई, घर-परिवार है हमारा, पइसा तो बढ़ना ही चाहिए ना। सब कुछ ना कुछ फेंक रहे थे तो अपने संजीव जी के पेट में भी बुलबुले उठने शुरू हो गए, अपने चिर परिचित अंदाज में मुंह बनाकर बोले, और कछु होए के झन होए... ये बार मैं टूरी के ददा ल हौ कई देहंव... (पैसे बढ़ने के बाद मैं इस बार लड़की के बाप को हां जरूर कह दूंगा) अब तो मेरी हंसी छूट गई। तो पास खड़े जिराफ, अरे वही अपने सत्येंद्र जी बोले मइडम जी आप इस बार तो मिठाई जरूर खिलाएगा नहीं तो हम सीधे बिहार टपक पड़ेंगे मिठाई खाने। उन्ही के साथ काम करने वाली सुची बात बीच में ही काटकर बोल पड़ी हां हां, इतना कड़वा जो बोलते हैं, इनका तो मुंह मीठा होना ही चाहिए। लापरवाही से अंगड़ाई लेकर भौएं ताने सनहर बोला देखिए मैडम जी जान लगाकर काम में जुटा रहता हूं, तो पान बीड़ी के लिए पइसा तो बढ़ना चाहिए ही ना.... भाई लोगों की खुशी में पता ही नहीं चला कि शाम के पांच कब बज गए। सब काम में जुटे थे कि अचानक कोई जोर से चिल्लाया लो बढ़ गई दिहाड़ी। लो कर लो बात... नजरें उठाईं तो सब सन्न थे। सभी एक दूसरे के चेहरे पर नजरें गढ़ाए प्रतिक्रिया जानने की चाह में थे। सजीत ने सुर्री छोड़ी, भई ये तो महंगाई में मजाक हो गया। तो कोई बोला आज ही नई तिजोरी खरीद लाऊंगा, आखिर इतना पैसा रखूंगा कहां। किसी ने चुप रहना ही बेहतर समझा। बोलते भी कैसे, प्यार से भिगोकर जो धर दिया था मुंह पर... फकत पांच रुपए बढ़ी दिहाड़ी हमारी....

Wednesday, September 16, 2009

मवेशियों के चरवाहे... महामूरख



विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर साहब ने एक बयान दिया है....
इकोनोमी क्लास भेड़-बकरियों की क्लास है... बात तो सच है... भई इससे एक बात तो साफ हो गई कि देश के लगभग 80 प्रतिशत भेड़-बकरियों को हांकने वाले ये चरवाहे खुद बड़े बददिमाग हैं... तभी तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की ये कड़वी सच्चाई दुनिया के सामने रख दी... कांग्रेस की कथित सादगी की शशि ने बखिया उधेड़कर रख दी है... लगे रहो... वेसे ये वो वही जनाब हैं जो यूएनओ के महासचिव की पद की दौड़ में भारत का झंडा ओढ़े दौड़ रहे थे... भई अच्छा हुआ महासचिव नहीं बने... वर्ना इस सोच-समझ के साथ उस प्रतिष्ठित गद्दी पर बैठते तो बंटाधार कर देते ये ठनठन गोपाल....

Friday, August 28, 2009

तन्हाई की कलम से....



घर से दूर रहने के बाद दो बातों का अहसास और अहमियत बखूबी हुआ है मुझे... एक परिवार और दूसरा अकेलापन। पहली बार अहसास हुआ कि तन्हाई उपजाऊ भी हो सकती है...
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चार दीवारी की अदृश्य शक्ति
चढ़ती-उतरती सांसों की प्रेरणा
तन्हा दिन और बोरिंग रातों की
नमी स्याही बन गई
भावनाएं शब्दों का रूप लेने लगीं
मन कलम बन गया और
शरीर एक आत्मा
फिर क्या था
जो तन्हाई कहती, आत्मा वही करती
शब्दों के कोंपल फूटने लगे
तब समझ में आया
अकेलापन उपजाऊ है
बंजर मन की धरा पर भी
रचनात्मकता की फसल उग सकती है
आज फिर वही रात है
तन्हाई हल लेकर निकल पड़ी है
और रचना की लहलहाती फसल उग गई

यूं ही कभी तन्हाई, बावरी पवन से जा टकराती
थोड़ी नोंक-झोंक, थोड़ी तू-तू मैं-मैं
फिर गुपचुप सुलह हो जाती
और उसकी लहराती जुल्फें
मेरे तन से लिपट जातीं
सांत्वनां बंधाती मेरी अपनी बनकर
वो चुप सुनती, मैं ढेरों बातें करती
अपनी हरियाली मेरी आत्मा में
उड़ेलकर तड़पते मन को शान्त कर देती
हां... मैं लेकर सुखी
और वो देकर खुश.......
..जीवन के सुरों से टकराकर तन्हाई तरन्नुम बन गई...






Friday, August 21, 2009

मीडिया को मोतियाबिंद

हां... देख तो पाता है लेकिन आंखों की ज्योति धुंधलाती जा रही है... हिन्दी मीडिया एक बिगड़ैल युवा बन गया है। युवा इसलिए क्योंकि आज तक भारत में मीडिया को शैशव काल में विस्तार और आकार लेता शिशु ही माना जाता रहा है। १०-१२ साल के बदलावों पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि ये बच्चा अतिउत्साह में बिगड़ गया है। जो भावशून्य तो था ही अब देखने समझने की शक्ति भी खोता जा रहा है। बुधवार १०/०८/०९ दो बड़ी खबरें आईं... एक जसवंत सिंह के निजी विचारों से सजी किताब पर पार्टी से उनकी सियासी कुट्टी की और दूसरा देश में महंगाई और सूखा पर सरकार के बयान की। मीडिया ने सियासत की गर्मी तो टीवी स्क्रीन पर घंटों उतारा लेकिन अफसोस किसान और बेचारी जनता का महंगाई के डंक से ठंडा पड़ा जिस्म लावारिस ही छोड़ दिया। एक बिग ब्रेकिंग और एक शायद किसी किसी चैनल ने महज एक पैकेज महंगाई के नाम समर्पित कर दिया गया। दिन भर जसवंत के इन आउट को लेकर माहौल गर्माया रहा... जिस बात से देश के अन्नदाता को रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ता... उसी से टीवी स्क्रीन रंगे हुए थे। एक किसान, मजदूर को पेट और परिवार के सिवाय फुर्सत ही कहां है भला। क्यूं नहीं पूछा गया सरकार से कि कहां कई वादों की वो पोटली जो किसानों को सूखा राहत देने के लिए सरकारी कोष में सड़ रही है। आखिर कब तक किसान आसमां की तरफ सिर किए बादलों से मिन्नत करता रहेगा। क्यों सिंचाई के लिए किए जा रहे सरकारी प्रयास कामयाब होते नहीं दिख रहे हैं। मुंह चिढ़ाते आलू, टमाटर और आंख दिखाती सब्जीमंडी को बेचारा आम इंसान किस तरह से झेलता है उसका गैरतमंद मन ही जानता है। राजनेताओं का ये ड्रामा तो रोज की बात है... अतिवादिता का शिकार बीजेपी की विचारधारा को एक ना एक दिन बदलना ही पड़ेगा। लेकिन आखिर मीडिया क्यों अतिवादी बनता जा रहा है... इसे तो इंद्रधनुष की तरह दुख-सुख, गली-कूचों और जमीन आसमान से रंग चुरा कर परदे पर फैंकने चाहिए... डरती हूं कि अभी तो बस सियासी मोतियाबिंद का शिकार हुआ है मीडिया... जल्द ही कहीं हार्टअटैक ना आ जाए इसे....

Friday, August 7, 2009

....क्योंकि सवाल टीआरपी का है

........मीडिया मित्रगणों को समर्पित........









बोलो
ना कुछ पर कुछ आवाज जरूरी है
आंख बंद भी कर दो पर अहसास जरूरी है
शोर करना ही उद्देश्य हो सही पर
सरसरी पर सनसनी का लबादा जरूरी है

आवाज है आवाम की तू, समझ ले इसे
खुद के लिए निरीह सही पर
बेकसूरों की आह सुनाना जरूरी है

बोल कौन देखना चाहेगा

तिल-तिल बिखरता जीवन तेरा
कि 24 x7 परदे
सलाम जिंदगी गुनगुनाना जरूरी है

तूने खाया ना खाया क्या मतलब किसे
दिनभर की हलचलों को तफतीश से
नौ की बात में बताना जरूरी है

परिवार की सुध हो ना हो सही
खबरों की खबर लेनी है तुझे
भड़कीली साड़ियों का वो
जलवा
सास-बहू-साजिश के जरिए
घर-घर पहुंचाना जरूरी है

कब थमा दें प्यार भरा इस्तीफा तुझे
सो सबसे तेज़, सबसे ख़ास
अंदाज भरा तेरा आगाज़ जरूरी है

धूप-छांव, बारिश क्या चीज़ है नाचीज़
समझ ले तू कि जोकर है उनके लिए
चाहे कितना भी ढीठ हो, थाम डुगडुगी
खबरिया बंदर नचाना बेहद जरूरी है
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Tuesday, August 4, 2009




राखी का आना... उफ
उसका शरमाना... उफ
चलना, बतियाना... उफ... उफ... उफ
जान ही ले लेती है...... जानते ही होंगे किसकी? अरे भई उन सभी जवान लेकिन कम अक्ल कुवारों की जो स्वयंवर में उसके सपनों के राजकुमार बनकर कैमरे की आंख से आंख मिलाते दिखे। क्योंकि आपके और मेरे लिए तो बस खीसे निपोरने जैसी स्थिति रहती है उसे टीवी पर देखना। कसम से फुलटू ड्रामा है ये लड़की।
'मेरी मरजी' की धुन पर थिरकती आज की पीढ़ी की अगुवाई करती राखी, सच में मीडिया की दत्तक बेटी है। बल्कि उसे मडिया की दत्तक कमाऊ बेटी बुलाना ज्यादा सटीक है। खुद भी कमाती है और अपने पैरेंट्स (मीडिया) की भी जेब भरती है। क्या बुराई है यार। नकली भावनाएं, नकली आंसू, नकली हरकतों से सजी धजी ये दुल्हन जब स्टेज पर असली फूलों से गुंथी वरमाला लेकर खड़ी होती है... तो बस प्रोग्राम हिट। एक घंटे जमकर हंसिए, खिलखलाइए और सारी टेंशन भूल जाइए। बस जरा ध्यान रखिएगा... कहीं सामने सोफे पर बैठी स्वयंवर कार्यक्रम पर नज़र गढ़ाए आपकी बिटिया रानी, राखी मेमसाब को अपना रोलमॉडल मानकर उसके नक्शेकदमों पर ना चलने लगे। अब ये तो आपको ही देखना है इसकी जिम्मेदारी मीडिया क्यों ले।
राखी को लेकर मेरी भावनाओं को ग़लत ना ही समझा जाए तो अच्छा है क्योंकि वो जो है उसके पीछे कहीं ना कहीं हम-आप ही हैं। वो तमाशा करती है और हम देखते हैं... कम कौन है, कोई नहीं। तमाशे को तमाशबीन की तालियां ही बढ़ावा देती हैं जो आप और हम करते हैं और करेंगे भी। क्योंकि रिएलिटी शो में जिंदगी की कड़वी रिएलिटी को कोई स्वीकार नहीं कर सकेगा। वो कुंठाए, हताशा, ग्लानि और निराशा, असफलता और तमाम मुश्किलों को झेलकर मुठ्ठी भर सफलता का वो स्वाद... ये सभी क्या देख पाएंगे फिर से। क्या झेल पाएंगे दिनभर की जद्दोजेहद के बाद फिर से सौ फीसदी कठोर धरातल पर दौड़ता वो मन। अब मान भी जाइए कि अपनी कड़वी सच्चाइयों को छुपाने के लिए हमने राखी नाम का एक स्वांग रच दिया है, जिसे अपने परिवार के साथ नहीं तो चुपके-चुपके चोरी छिपे हम देखना पसंद करते हैं। हम हंसते है उस पर नहीं बल्कि खुद पर.......
सच बोल भी दूं तो बोलूं कैसे
दिलो-दिमाग नहीं मुझ जैसे
फक़त
सुरूर है वीरान दिलों का

सच सुनने वाले मिलेंगे कहां ऐसे
सच मानिए नहीं मिलेंगे... और सच के व्यापार के पीछे सच्चाई भी यही है।

Thursday, July 30, 2009

रेशम की डोरी

सुबह-सुबह भाई का फोन आया था
... मोबाइल पर अपने चिरपरिचित अंदाज में उसने पूछा कि बोल दीदी राखी भेज दी है ना। मैने हां में जवाब दिया और उसे समझाने लगी कि यहां रायपुर में मुझे मेरे मन की राखियां नहीं मिलीं। (बीच में मम्मी बोलीं कि कोई जरूरत नहीं है ज्यादा महंगी राखियां भेजने की। धागा ही सबसे अच्छी राखी होता है। ये मम्मी नाम की स्पीशीज भी बहुत अजीब होती है, भई मोबाइल पर बात कोई भी करे उन्हें अपना संदेश पहुंचाना है तो है... वो चिल्लाकर अपनी बात बता ही देंगी) हां, तो मैं बता रही थी कि मेरे भाई ने तपाक से कहा कि बोल तुझेक्या गिफ्ट चाहिए... मैं स्तब्ध रह गई। सोचा ये इतना बड़ा कब से हो गया है कि अपनी बड़ी दीदी को कुछ देने कीबात करने लगा। फिर सोचा कि शायद इतना बड़ा नहीं लेकिन इतना समझदार जरूर हो गया है कि मुझेदुनियादारी समझाने लगा है। उसने सोचा होगा भई कमाने लगा हूं, इस बार दीदी को जरूर कुछ दूंगा। मुझे अच्छाभी लगा लेकिन फिर सोचती हूं कि क्या कुछ देना जरूरी है। आज रेशम के धागे का बाज़ार के साथ गहरा नाता जुड़ गया है। इतना गहरा कि एक हाथ की कलाई पर धागा बंधवाने से पहले हर भाई अपना दूसरा हाथ भरा हुआदेखना चाहता है। गिफ्ट से भरे हुए हाथ से हैसियत का तराजू बैलेंस रहने का भ्रम हो चला है दुनिया को। रेशम केधागे से बंधा प्यार का संसार, भौतिकवादी समाज में सिमटता हुआ नजर आता है मुझे। और उस पर महंगाई आंटीतो सुरसा माई बन गई है... बेचारे भाई के अरमानों को बेदर्दी से निगलती नजर आती है।
हां, आधुनिकता के साथ बदलाव जरूरी है पर क्या ये जरूरी बदलाव, जीवन की मजबूरी नहीं बनते जा रहे हैं। सचबताइए दिल से कि क्या सबसे अच्छा गिफ्ट देकर आप अपनी बहन को सबसे खुश महसूस नहीं करवाना चाहतेऔर साथ ही खुद भी गर्वान्वित महसूस करते हैं। दोष किसी का नहीं, दरअसल आधुनिकता की चादर सोने-चांदी केभौतिकवादी धागों से बुनी है। आप तो बस बाज़ार देखिए और बाज़ार का खेल देखिए। एक दूसरी बात है व्यस्तता।मेरा ख्याल है अति व्यस्तता ने इस त्योहार का मज़ा फीका कर दिया है। बड़े अरमानों से खरीदी राखी को बेचारीबहन तसल्ली से भाई की कलाई पर बांध भी नहीं पाती है... भागदौड़ भरी जिंदगी में फुरसत के पल ही कहां है? भावनाओं का दायरा भी जरा सिमटा है लेकिन शायद प्यार वहीं है, अहसास अभी भी वहीं है... मैं समझती हूं किमेरा भाई शायद कुछ देना चाहता है मुझे लेकिन उसका ये बोलना भर मेरी आखों को नम कर गया। बस एक हीबात कहना चाहूंगी, इस राखी में हो सके तो अपनी बहन के साथ कुछ देर बैठकर बातें करिए, उससे उसके सपनों केबारे में सुनिए, अपने सपने उसे बताइए... कोशिश करिए, थोड़ा वक्त निकालकर रिश्तों को महसूस करने की...

Monday, July 27, 2009

दुख

आंख के पोरों से ढुलका
गालों का सफर तय करते
ओढ़नी को भिगोता दुख
कैसे छिपाऊंगी इसे कि
पारदर्शी आंसुओं के पार
चेहरों पर पड़ी लकीरों से
कोई पढ़ लेगा कभी
कहां छिपाऊंगी इसे कि
अब तो दिल तक उतर चुका है
अंतड़ियों से गुजरता
लहू के साथ नाड़ियों में
दौड़ता दुख
कोई इलाज है क्या
उत्तर मिला... नहीं
फिर गौर से सुना
मन कुछ कह रहा था
बेचारा कहता है, धीरज धरो
ये वक्त सरकेगा
नई सुबह आएगी
धीरज धरा मैने....
लेकिन नतीजा
दुख आज भी वहीं है,
बस गुजरते लम्हों के साथ
मुझे आदत हो गई
है इसकी... हां इसकी
अब होठों पर हंसी है
सोचती हूं कि मेरे एकांत
का साथी बन बैठा है ये
मेरे अंदर गहराई में कहीं....

Friday, July 24, 2009

हदों के पार गर हद हो कोई...

हद हो गई... लेकिन क्या करें कि इससे ज्यादा और इससे नीचे भी क्या गिरते हम. देखा नहीं उस लड़की को.. बेशरम कहीं कि, बेहया और उस पर खुले आम अपने आशिक के साथ घूम रही थी.. अब बताइये भइया ये ना करते तो क्या करते हम.. बस फाड़ डाले उस कुल्टा के कपड़े. अरे जब बेहयाई मन-तन से झलक रही हो तो फिर कपड़े से उसे ढांकने से क्या फायदा. आखिकार हम ठहरे समाज के ठेकेदार. ये असामाजिक हरकत कैसे बर्दाश्त करते. सो कर दिया जो करना चाहिए था. कैसे कोई दिनदहाड़े अपने आशिक के साथ सार्वजनिक स्थान पर घूम सकत है. अरे हम पूछ रहे हैं सड़क क्या उसके बाप की है. और हां, अब कोई कहे कि भई सरेआम लड़की के कपड़े फाड़कर हमने कौन सा फर्ज निभा लिया या फिर इससे समाज का क्या भला हो जाएगा.. तो हमें फर्क नहीं पड़ता और आगे भी हम यही करते रहेंगे.. और जरा हमें एक बात बताइये कि समाज का चौथा स्तंभ वो मुआं, नासपीटा रिपोर्टरवा भी वहां मौजूद था जिसने हमें और इस बेहया को कैमरे में कैद किया था. उसको कोई कुछ क्यों नहीं बोलता. उसने क्यों अपना फर्ज नहीं निभाया और पुलिस को बुला लिया. भई हम कहते हैं कि वो एक दिन टीआरपी की फिक्र छोड़कर किसी पुलिसवाले को फोन घुमा देता क्या जाता. फिर भइया सच तो ये है कि अपनी पुलिस एक बार बुलाने पर कहां टाइम पर आती है ससुरी जो अब आ जाएगी. आती भी हमें पता है साथ हमारा ही देती. भई उनके घर में भी तो बहू-बेटियां होंगी. वो ऐसे ही करेंगी तो जचेगा क्या?
हम हैं भीड़... बेलौस... बेलगाम... कोई रोक सके तो रोके... ये खुली चुनौती है दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को हमारी...

Friday, July 17, 2009

G-8 पर दो शब्द

फिल्म बॉर्डर की लाइनें याद हैं मुझे....
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"तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं"

जी हां, धरती पर वसुधैव कुटुबम्कम को चरितार्थ तभी किया जा सकता है जब G-14 अस्तित्व में आएगा... ताकि सिर्फ
ताकतवर ही नहीं बल्कि कमजोर की आवाज भी वैश्विक स्तर पर सुनी और सुनाई जा सके...

Friday, July 10, 2009

...क्योंकि ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है

इसलिए इस समाज को बदलने की सख्त जरूरत है
क्या वाकई हम बहू-बेटी के दर्जे को समझने या सम्मान करने वाला समाज हैं? ये सवाल मेरा हर उस भारतीय से है जो उस देश में रहता है जिसे दुनिया का गुरू कहा जाता है। २०० साल गुलामी की बेड़ियों में लिपटी भारत मां को इसके सपूतों ने प्राणों की आहूति देकर स्वतंत्र कराया। लेकिन ये सब किसलिए? क्या इसलिए कि एक बार फिर यहां औरतों को परंपरा और रूढ़ियों के नाम पर गुलाम बनाकर गुड़िया की तरह घर में सजा दिया जाए। अगर नहीं तो कानपुर के कॉलेजों में लड़कियों के जींस पहनने का तुगलकी फरमान किस तरफ इशारा करता है। आखिर क्या खराबी है इस पहनावे में। मैं पूछती हूं कपड़ों का उद्देश्य क्या होता है; तन को ढकना। फिर चाहे वो किसी भी तरीके से ढका जाए। दरअसल इस विचारधारा की जड़ को खोदा जाए तो मिलेगा कि इस समाज में लड़कियों को हमेशा रक्षात्मक स्तर पर रखा गया है। हमेशा उन्हें असमाजिक तत्वों का डर दिखाकर घर की कोठरी में बंद रहने की सलाह दी गई। आखिर क्यों- सवाल ये है कि क्या सलवार कमीज पहनी (जो कि इस समाज में एक सलीकेदार पहनावे के रूप में देखा जाता है) किसी राह चलती लड़की को गंदे और अश्लील कमेंट सुनने को नहीं मिलते या फिर सरेआम उठाकर उसकी आबरू को तार तार नहीं किया जाता ? फिर यहां पहनावे की भूमिका ही कहां रही ? ये पहनावा या ऐसी ही तमाम वो बंदिशें वास्तव में उस कमजोर समाज की नाकामी को बयां करती है जो अपने घर में ही बहू-बेटियों को बेइज्जत होने से बचा पाने में लाचार है। और अगर कपड़ों से ही मानसिक विकार को रोका जा सकता है तो फिर लडकों को भी धोती कुर्ता पहनकर सड़क पर निकलना चाहिए ताकि उनकी तामसिक और आपराधिक भावनाओं को काबू किया जा सके। रोकना है तो असमाजिक रूढ़िवादी सोच को रोकिए, रक्षात्मक घेरे में आपकी बेटियां कभी भी समाज में बढ़ रही आपराधिक गतिविधियों को मुंहतोड़ जवाब नहीं दे सकतीं। सिखाना है तो उन्हें गलत के खिलाफ लड़ना सिखाइए। उन्हें सिर उठाकर जीना सिखाइए ताकि ये संभावना बनी रहे कि वो मुश्किल वक्त में आत्मरक्षा कर सके। और बलात्कार का दंश झेल रही लड़की अपनी आत्मा को पवित्र समझकर नए सिरे से जिंदगी शुरू कर सके। बहू-बेटी घर की लज्जा तब है जब आप उनके अधिकारों को सौंपकर उन्हें खुद फैसला लेने की छूट दें। आक्रमणकारी बीमार तो ये समाज है और इस संक्रामित समाज की त्रासदी लड़कियां झेल रही हैं। और आखिर में कहना चाहती हूं कि नियम कानून समाज को सही दिशा-दशा देने के लिए होते हैं ताकि जीवन खुशहाल हो सके। किसी भी कानून से जीवन बेहाल तो कतई नहीं होना चाहिए।

Thursday, July 9, 2009

उफ ये सीरियल्स....

"दीदी ये रखैल क्या होता है", टीवी पर नजरें गढ़ाए मेरे भतीजे ने मुझ पर ये सवाल दागा तो महसूस हुआ कि सात साल के बच्चे को इस शब्द की गूढ़ता समझाना कितना मुश्किल है... टीवी से पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव की ये महज एक बानगी भर है...
दृश्य-श्रव्य गुणों के कारण टीवी एक ऐसा माध्यम है जिसे परिवार का हर सदस्य एक साथ बैठकर देख सकता है। टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम और फिल्में ना सिर्फ मनोरंजन का बेहतर जरिया है बल्कि दर्शक इनसे जुड़ाव भी साफ महसूस करते हैं। यही जुड़ाव छोटे परदे के धारावाहिकों के माध्यम से काल्पनिक, वास्तविक, सामाजिक और मानसिक सभी सतहों को छूता हुआ सीधा उनकी निजी जिंदगी में प्रवेश कर जाता है। बड़े परदे के दर्जे का मान-सम्मान और बुलंदियां छूने की चाहत में धारावाहिकों को अपने कन्वेंशल रोल से बाहर निकलना पड़ा। 'हम लोग' से शुरू हुआ ये लंबा सफ़र 'नया नुक्कड़ ' से गुजरता हुआ 'लिप्स्टिक' और अंतहीन सास-बहू-बेटियों के पैंतरों में फंसकर रह गया है।
घर-घर में आम सास-बहू की नोंक-झोंक को भारतीय संस्कृति परंपरा से जोड़कर प्रसिद्धि पाने की कोशिश बेहद सफल रही लेकिन अति किसी भी विचारधारा के पतन का पहला कारण है। वास्तविकता दिखाते-दिखाते काल्पनिकता की सारी हदें पार कर जाना भी कहां की समझदारी है। धारावाहिकों में कहीं आलीशान दरो-दरवाजा है तो कहीं मानवीय भावनाओं का भरपूर मखौल उड़ाते हुए मुख्य पात्र को मुसीबतों से हर पल जूझते हुए दिखाया जाता है। छोटे पर्दे की तरह वास्तव में ना तो जीवन इतना आसान और आलीशान है औऱ ना ही मुसीबतों से सराबोर। धारावाहिकों का ये अंधा भटकाव टीआरपी रेटिंग की अंधाधुंध भेड़चाल का ही नतीजा है। अश्लील दृश्य, द्विअर्थी भाषा, गंदे संवाद और प्रेमसंबंधों को भुनाने की कवायद भी इसी कोशिश का घिनौना रूप है। 'चंद्रकांता' जैसा भव्य और प्रसिद्ध धारावाहिक अपनी अश्लीलता के कारण ही बंद हुआ।
दरअसल ये भाषा या बनते-बिगड़ते ये रिश्ते समाज में इतने आम नहीं हैं जितना इन्हें दिखाने की जी-तोड़ कोशिश की जाती है। इसलिए समाज का आइना कहलाने वाला छोटा परदा समाज का वास्तविक स्वरूप दिखाने में नाकामयाब साबित हो रहा है। हां, भारतीय समाज यकीनन बदल रहा है लेकिन यहां मानसिक परिवर्तन की दर भौतिक परिवर्तन से बहुत धीमी है। लोगों की सोच, विचारधारा और जरूरतों से भी तेज छोटे परदे की दुनिया भाग रही है। बार-बार कथित उन्मुक्त समाज की बेलगाम छवि बच्चों को परोसने की वजह से बच्चे इन्हें जीवन से जुड़ी एख सामान्य घटना समझकर गलत संबंधों की तरफ आकर्षित होते हैं लेकिन नतीजा सिफ़र निकलने पर आत्महत्या जैसा चरम कदम उठाने से भी नहीं चूकते।
इस सब के साथ ही नारी की एक बेहद काल्पनिक छवि भी दर्शकों को देखने को मिल रही है। औरत, शांति, अर्धांगिनी जैसे नारी प्रधान धारावाहिकों के बाद तो जैसे भारतीय नारी की कथित आधुनिक छवि को उकेरने की होड़ लग गई। आज नारी या तो सोच से परे की खलनायिका है या फिर अत्याधुनिक सहनशीलता की देवी। या तो तंग कपड़ों में अंग प्रदर्शन करती उन्मुक्त विचारों वाली बाला है या फिर लाज शरम की साड़ी में बेकार रूढ़ियों को बेकार में सहती बेचारी अबला। मतलब साफ है काला या सफेद, किसी भी रूप में नारी की आधुनिक छवि, गढ़ी गई लेखनी का खिलौना बन कर रह गई है। हालांकि तुलसी, पार्वती और कुमकुम के सामने जस्सी और करीना जैसे वास्तविक मिडिल क्लास पात्र मुख्य चुनौती बनकर उभरे तो थे लेकिन फिर ये भी आम हो गया।

Wednesday, July 8, 2009

प्रकृति

प्रकृति को स्त्री का मानवीकृत रूप मानकर सभी पहरों का बचपन से लेकर यौवन तक की कहानी
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फूटे नवल किरण, कर प्रणय आगाज
दिशा-दिशा गुंजित कर छेड़े साज
केसरिया चुनर ओढ़े स्वर्णिम ललाट नार
शरमाती, लहराती कुमकुम संग करे श्रृंगार
बलखाकर छेड़े मृदु सुरों के तार

अगणित रंगों संग सृष्टि सजाती
नैनों से हृदय तक आती
चीर पाषाण, पावन नीर बहाती
मदमस्त पवन अंग-अंग लिपटाती
चटककर कली, कुसुम बन जाती

तेरा अस्तित्व मात्र जीवन आधार
मुख तेज से उज्जवलित संसार
काल चक्र गतिमत करता तेरा आकार
चमकीली धूप आंचल की तेरे
जीवन से लेती साक्षात्कार

रजनी को दुर्लभ रत्न चढ़ाकर
आमंत्रित करती चंद्र बुलाकर
दूर छिपा उसे तके प्रभाकर
कजरारे नैनों से कर निष्क्रिय
जीवट करती, फिर भोर खिलाकर
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Wednesday, March 4, 2009

फुहार

आपने कुछ सुना... रुकिए... देखिए और महसूस कीजिए... पहली फुहार... टप-टप बरसती बूंदें और नहा गई सृष्टि। बादलों का राग सुनिए, बूंदों का साज सुनिए, हवा की सनसन सुनिए और सुनिए पंछियों का शोर।
भागती-दौड़ती जिंदगी में फुरसत के दो पल बटोरकर मासूम भीगी प्रकृति को कभी मन की आंखों से छूकर देखा है आपने। बड़े-बड़े कांच के शीशों से बस एक बार हाथ बाहर निकालकर बादलों की गोद से टूटकर बिखरी इन बूंदों को छुआ है आपने... जरूर सोचेंगे आप कि जिंदगी में इतना वक्त ही किसके पास है। लेकिन यकीन मानिए प्रकृति के करीब जाकर आप खुद के नजदीक पहुंच जाते हैं। कल भी, आज भी और कभी ना खत्म होने वाली प्रकृति का ये जादू आपकी परेशानियों को हल्का करके ताकत रखता है। साज, संस्कृति और संगीत के धनी इस देश में अगर आप निश्छल, मीठा और रागों से छलकता संगीत सुनना चाहते हैं तो जाइए... प्रकृति से जाकर मिलिए... उसका साक्षात्कार करिए, तभी आप आध्यात्म के चरम को भी छू सकते हैं। प्राकृतिक संगीत में नवजात की किलकारी के सुर भी हैं तो मां की ममता का ताल भी। विचलित, दुखी और परेशान मन एफएम के धमधम बजते शोर शोर में खोकर जिन सवालों के जवाब ढूंढता है वो सभी प्रकृति की गोद में आकर शांत हो जाते हैं।
बस एक बार, एक कोशिश और आप पल भर के लिए ही सही सभी दुखों से उठकर शान्ति पाने में सफल हो सकेंगे।