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Saturday, October 9, 2010

एक रात की बात

... पुतलियां डगमगाई तो देखा कि कालिख पुती वो रात चल बसी। ना जाने और क्या क्या हुआ उस रात। भर रात जिंदगी की कड़वी सच्चाईयों से पर्दा नुचता गया। हां मैने देखा खुद अपनी आंखों से... मौत से जिंदगी की भीख मांगती सांसों को। उस रात हम अपने मरीज के साथ हर हॉस्पिटल की चौखट पर गए लेकिन बीमार बिलबिलाती भीड़ से अस्पताल पटे पड़े थे। क्या पता था कि रात की चादर में कितने कांटे बिछे हैं। आखिरकार आरएमएल में शरण मिल ही गई। इमरजेंसी का वो दृश्य आज भी आंखों में तैर जाता है। स्ट्रेचर पर अधजली हालत में कुछ ढका, कुछ खुला सांसे लेता वो शरीर, खून से लथपथ वो आदमी, कराहती सिकुड़ी वो बुढ़िया और बदहवास तीमारदार। हमारे सामने वाले स्ट्रेचर पर एक बूढ़ी के हाथ-पैर दबाता उसका हमसफर बार बार ऊंघ रहा था। क्या करे बेचारा रात का वो पहर आमतौर पर नींद में गोते लगाने का ही होता है लेकिन अचानक पत्नी को पैरालाइसिस का अटैक पड़ गया। सो ना जाने कब से अपनी रोती बिलखती पत्नी के अंगों को दबाकर उसे शांत करने की असफल कोशिश में जुटा था। इंजैक्शन और दवाई की बदबू से मन भारी हो गया। सुबह से ही परेशान मन कहीं पलभर बैठने की जगह ढूंढने लगा लेकिन वहां उस माहौल में ठीक से खड़े होने की जगह भी नसीबवालों को ही मिल रही थी। कई बदकिस्मत ऐसे भी थे जिनको इमरजेंसी में घुसने का मौका तक नहीं मिला। वो लोग बाहर बैठे लाचार तरसती नजरों से जगह खाली होने का इंतजार कर रहे थे। बीमारों को आसरा अस्पताल का और अस्पताल खचाखच भरे हुए। एक अदद स्ट्रेचर की तलाश में तीमारदार लगातार बस भाग रहे थे। गुमसुम घबराए सभी चेहरे एक बूंद आंसू बहाने को वक्त तलाशते दिखे लेकिन मरीज को कुछ हो ना जाए, इसकी चिंता रोने की इजाजत भी नहीं दे रही थी। इस सब के बीच अचानक जोर से चिल्लाने की आवाज आई। और फिर कई आवाजें एक साथ मिल गईं। मैं भागकर उस दिशा में गई तो पांव फर्श पर जम गए। आंखे पथराईं और जीभ बाहर... एक शरीर से सांस टूट चुकी थी। अब तो घबराहट अपने चरम पर थी।
खैर कई घंटों बाद हमारे मरीज को एक वॉर्ड में शिफ्ट कर दिया गया. लेकिन चैन को भी चैन ना था उस रात। अभी शिफ्ट हुए ही थे कि धड़धड़ाते हुए तीन डॉक्टर्स वॉर्ड में घुस गए और १५-१६ साल के बच्चे की छाती को दबाकर पंप करने लगे। बच्चे की सांसे लगभग जा चुकी थीं फिर भी डॉक्टर्स की कोशिश लगातार जारी थी। जिंदगी और मौत की ऐसी जंग पहली बार देख रही थी। 10 मिनट तक ये सिलसिला जारी रहा. पंप... पंप... पंप और फिर... सांस लेने की आवाज। आखिरकार बच्चे की सांसे वापस आने लगीं मतलब जिंदगी जंग जीत गई। इस बीच अचानक घड़ी पर नजर दौड़ाई तो देखा कि सुई पांच पर अटकी हुई थी। मैं इमरजेंसी के बाहर निकली। सुबह अंगड़ाई ले रही थी। अपनी चिर परिचित खुशबू के साथ अलसाए संसार में जान फूंक रही थी। लंबी लंबी सांसें भरने के बाद मैं दोबारा इमरजेंसी के अंदर गई तो लगा कि नजारा बदल चुका है। धीरे धीरे वहां शांति ने डेरा जमाना शुरू कर दिया था। फर्शों की सफाई हो रही थी, कई मरीजों को डिस्चार्ज किया जा चुका था। जिनके अपनों ने उनका साथ छोड़ दिया था वो भी रात भर रोकर अब आगे की कार्रवाई को शांति से निपटाने में व्यस्त थे। लगा कि इस सुबह का कितनी देर से इंतजार था मुझे। शांत, शीतल और सात्विक.