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Monday, July 27, 2009

दुख

आंख के पोरों से ढुलका
गालों का सफर तय करते
ओढ़नी को भिगोता दुख
कैसे छिपाऊंगी इसे कि
पारदर्शी आंसुओं के पार
चेहरों पर पड़ी लकीरों से
कोई पढ़ लेगा कभी
कहां छिपाऊंगी इसे कि
अब तो दिल तक उतर चुका है
अंतड़ियों से गुजरता
लहू के साथ नाड़ियों में
दौड़ता दुख
कोई इलाज है क्या
उत्तर मिला... नहीं
फिर गौर से सुना
मन कुछ कह रहा था
बेचारा कहता है, धीरज धरो
ये वक्त सरकेगा
नई सुबह आएगी
धीरज धरा मैने....
लेकिन नतीजा
दुख आज भी वहीं है,
बस गुजरते लम्हों के साथ
मुझे आदत हो गई
है इसकी... हां इसकी
अब होठों पर हंसी है
सोचती हूं कि मेरे एकांत
का साथी बन बैठा है ये
मेरे अंदर गहराई में कहीं....