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Sunday, September 12, 2010

... और खोज जारी है

तन्हाई के इस पार, उस पार
झांकू मैं आखिर कितनी बार
मालूम है कि आंचल फैलाए
खड़ी है तू इंतजार में
रास्ता छोटा पर दूरी बड़ी है
मन से बाहर, व्याकुल मन से बाहर
आता नहीं क्यों वो
खुद बाहर आता नहीं
ना आने देता भीतर तुझे
जम गया अवसाद है शायद
रिस रिस कर टपकता है शायद
शांति, संतुष्टि या निजता के पलों को
तन्हाई के तरन्नुम में खोजता मन
खुशियों के पलों में दुख को
खोदता, टटोलता अंशात मन
वो कुछ जो ना मिल सका

उस कुछ की खोज में
नित नई खोज पर निकला
तन्हा, बावरा मेरा मन