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Sunday, July 20, 2008

कैसे रोकेंगे इस बयार को ?

बताइये कैसे- अरे जनाब मैं कहती हूं नामुमकिन है। अजी भारत ग्लोबल जो हो गया है। ग्लोबल नहीं समझे आप तो स्विच ऑन टु युअर टीवी। फिर देखिए हमारे सास बहू सीरियल हमारे द्विभाषी विज्ञापन या फिर हमीरी फिल्में। सभी में एक ही समानता है- खुलापन। फिर चाहे वो विचारों का हो या तन से सरकते कपड़ों का। परिवार में दरकते रिश्तों का हो या फिर शादी की बदलती मान्यताओं का। ये बयार है पश्चिमी बयार। अपने कई रुपों में और कई आयामों के साथ ये बयार दबे पांव भारतीय संस्कृति में घुलमिल गई है। ये भारतीय संस्कृति में भाषा में तकनीक में, परिवेश में, खानपान में और राजनीतिक विचारधारा में रच बस गई है। खुलेपन की इस बयार में तो वाममोर्चे वाली पश्चिमी बंगाल सरकार भी झूल रही है। राज्य को बदलते सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक परिवेश में पटरी पर दौड़ने की खीझ सरकारी नुमाइंदों में साफ जाहिर है। बस मच गया संग्राम और खून से नहा गया नंदीग्राम। साफ है गुड़ खाएंगे तो गुलगुले से परहेज। हिन्दी में धड़ल्ले से दिखता और बिकता अपराध और सेक्स भी बदलती सामाजिक मान्यताओं और परिवेश को ही इंगित कर रहे हैं। न्यूक्लियर फैमिली में पति पत्नी के पास जब बच्चों के लिए मुश्किल से सिर्फ आधा घंटा ही बच पाता है। तो बच्चों की कल्पनाशीलता को टीवी, वीडियो गेम्स और कम्प्यूटर के पंख लग ही जाते हैं। ये फड़फड़ाते पंख उन्हें दुनिया की अंतहीन खिड़की को तोड़ने पर मजबूर कर देते हैं। बच्चे और युवा खुश हैं, स्वतंत्रता की इस उड़ान से। नसीहतों और आदर्शों की बेड़ियां उन्हें बांधे इससे पहले वो सबकुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। बाहर की इ बयार का स्वागत तो खुद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अपने शब्दों में व्यक्त किया था। दरअसल हमारी संस्कृति की विविधता ही इस पश्चिमी बयार को खुद में घुलने मिलने का निमंत्रण देती है। और फिर समय का लगातार घूमता पहिया विकास की पटरी पर दौड़ने के लिए संस्कृतियो के घालमेल की इजाजत देता है। जब खुला विदेशी निवेश समय की मांग है तो इस विशालकाय उपभोक्ता वाले देश में विदेशी संस्कृति भी दबे पांव चुपचाप चली आई। अब सवाल है कि इस बयार को आंधी बनने से कैसे रोका जाए। मैं कहती हूं कि इसे बहने दीजिए बस आप इसके लिए तैयार रहें। थोड़ा समय निकालकर नई पीढी को नसीहतों से भरा बस्ता लादने के बजाए हम बस अपनी संस्कृति और परिवेश की जानकारी उनके सामने रख दो। फिर ये खुद उन्हें फैसला करने दें कि क्या सही है और क्या गलत। तभी वो घालमेल की इस खिचड़ी संस्कृति से निकलकर अपने लिए नए और मजबूत आयाम ढूंढ पाएंगे।

जब हॉकी मेट क्रिकेट


कन ऑन ब्यॉज... वक अप... वक अप... कैच इट... गुड थ्रो... अरे अरे धप्पाक। ओह डोन्ट यू हैव आइज देहाती गंवार। हू आर यू…? \
माफ करना भैया... नमस्कार, हम हॉकी हैं।
ओह तो तुम हो वो झुके डंडे वाला एक फेल गेम। कहो क्या हाल चाल है। लेकिन पहले ये बताओ इस आलीशान क्रिकेट स्टेडियम में ये धोती कुर्ता पहने तुम कहां घुसे आ रहे हो? तुम्हें गार्ड्स ने रोका नहीं? अरे भैया नाराज क्यों होते हो, वो क्या है ना कि हम बड़ी मुश्किल से नजर बचाकर यहां तक पहुंचे हैं। हम देखना चाहते थे कि मेरा हिन्दुस्तान जिस क्रिकेट के पीछे पगलाया जा रहा है आखिर उस बला में ऐसा क्या खास है जो राष्ट्रीय खेल होते हुए भी मुझ में नहीं है।
ओह तो तुम देखना चाहते हो कि खेलों में मैं(क्रिकेट) नंबर एक की गद्दी पर कैसे पहुंचा। वैरी सिंपल मेरे पास आज पैसा है मीडिया है... सरकार है नेता हैं.. अभिनेता हैं और वो अब तो अमेरिका से इंपोर्टेड बारह गोरी छोरियां भी हैं। और तुम्हारे पास क्या है—हांय...
मेरे पास... मेरे पास ... वो.. वो.. हां मेरे पास खेल है जज्बा है।
अरे जाओ बड़े आए..जज्बा वाले। ये जज्बा जरूर सेंटियागो की हरी घास पर फिसल गया होगा जहां से तुम्हारे लड़के अस्सी सालों में पहली बार सिर झुकाए वापस लौटे थे। अरे ओलंपिक बिरादरी में देश की नाक ही कटवा दी तुमने। वैसे भी सिर्फ खेल और सो कॉल्ड जज्बे से नाम और पैसा नहीं कमाया जा सकता। मैं क्रिकेट हूं, तुमने मेरा ये कोट देखा है... स्पेशल अमेरिका से मंगवाया है और इसकी मैचिंग पैंट वो मशहूर डिजाइनर सव्यसाची से सिलवाई गई है। मेरे लड़कों को फैशन शो में रैंप पर इठलाते हुए तो देखा ही होगा तुमने। ऑफ्टर ऑल इट्स जैन्टलमैन्स गेम।
वो सब तो ठीक है भाई... लेकिन जब तुम्हारे लड़के मैदान में मां बहन की गाली दूसरे देश के खिलाड़ियों को देते हैं तब तुम्हारा ये जैन्टलमैन्स गेम किस मुंह से सिर उठाता है। ओह वो तो ... वो तो आक्रामक क्रिकेट की एक बानगी भर है। सुना नहीं तुमने क्रिकेट अब आक्रामक खेल हो गया है। मेरे लड़के मैदान में गालियां और मारपीट नहीं करेंगे तो मीडिया की कवरेज कैसे मिलेगी। वैसे भी ये देश की शान का मामला है। अरे वाह भाई,अपने ही देश के तीसमार खानों को भुलाकर विदेशी कोच के हाथ पैर पकड़कर उसे बुलाना और अपने ही लड़कों की सरेआम बोली लगाने से देश की शान पर बट्टा नहीं लगता क्या? उफ्फ रहोगे ना तुम गंवार के गंवार। इट्स ए पार्ट ऑफ स्ट्रैटजी यार। विदेशी कोच को यहां खेल की चाही अनचाही नीतियों से दबाना जरा आसान होता है। और रही बात लड़कों को बेचने की तो इससे क्रिकेट ग्लोबल होता है। और ठीक ही कहा तुमने, हम करें भी तो क्या करें? हॉकी का बड़े से बड़ा मुकाबला जीतने पर भी मेरे लड़कों पर ना तो पैसे की बरसात ही होती है और ना ही मीडिया से उधारी की पहचान ही मिल पाती है। अच्छा राम- राम चलते हैं।