सारा का सारा गांव जमा था भौजी के घर भोज में... भौजी के घर लक्ष्मी ने जो दस्तक दी थी. नाम रखा गया खुशी. जैसे कि परंपरा थी सारा गांव एक साथ एक कतार में भोज में खाने के लिए बैठा. रामदीन ने कहा अरे भई सलाद तो दो कि खाना खत्म होने पर तुमरे सलाद की थाली लुगाई की तरह बाहर निकलेगी. सभी हंस दिए तो जमुना बोली क्या चाचा आप भी, लुगाइयां तो खाना परोसने में लगी हैं जरा सब्र तो करो. एक तरफ से आवाज आई अरे भई जल्दी जल्दी खाना खाओ फिर जमुना के घर वो आमिर भाई का नया नाटक शुरू हुआ है वो भी तो देखना है. दूसरी आवाज आई अरे क्या खाक देखना है सभी नाटक तो एक तरह के ही हैं. छोटे-छोटे कपड़े पहन कर बेशरम लड़कियां खड़ी कर देंगे और आधा घंटा बस उन्हें ही निहारते रहो. फिर कोई बोला- नहीं भई ये कार्यक्रम ऐसा नहीं है ये तो कुछ अलग है, समाज की आंखे खोल देगा, ऐसा कुछ बता रहे थे टीवी पर. जवाब मिला- अरे खाक डालो ऐसे टीवी पर जहां देखो अश्लीलला फैली हुई है. परिवार के साथ तो आप देख ही नहीं सकते एक भी मिनट. मैं तो कहता हूं कि वो जो गुवाहाटी में उस बेशरम लड़की के साथ हुआ एक तरह से ठीक ही हुआ. उसके कपड़े देखे आपने. और तो और वो क्या कहते हैं उसे दारूखाना...हां पब-वब से बाहर आ रही थी. कोई दूध की धुली तो ना होगी वो छोरी. फिर रात को घर से अकेले निकलने को कहा किसने है. जमाना देखा है, कितना खराब है. कतार में बैठे सभी मर्दों ने चाचा की इस बात पर हामी में सिर हिला दिया. ये सारी बातें सुनकर जमुना तैश में आ गई. चाचा क्या बोले जा रहे हो- अरे जमाना आपसे और हमसे ही तो बनता है. उस लड़की के साथ जो कुछ हुआ उसमें उसके कपड़े कहां से आ गए. मैने देखा है कि टीवी पर, वो लड़के पहले उसे छेड़खानी कर रहे थे तभी ये सब कुछ हुआ. बेचारी लड़की. हाय... काहे की बेचारी. अपने मां-बाप का नाम डुबो दिया ससुरी ने. अरे जो उसके साथ हुआ वो तो किसी के भी साथ हो सकता है, ये सब तो मर्दों के दिमाग की गंदगी है. जो लड़की को सिर्फ भोग की चीज समझकर उसे किसी भी तरह से प्रताड़ित करते रहते हैं. ये सब तो आजकर सड़कों पर, बसों में औऱ कालेज जाते वक्त किसी भी लड़की के साथ आए दिन होता रहता है. लेकिन बेचारी लड़कियां चुप होकर रह जाती हैं. उस लड़की ने इसका विरोध किया तो इसकी ये सज़ा. तभी गांव के सरपंच बोले अरी जमुना तू काहे उसका इतना साथ दे रही है उस लड़की का गलत चरित्र ही इसके लिए जिम्मेदार है. अब जमुना गुस्से से उबल पड़ी. सरपंच जी आपको उसके चरित्र के बारे में इतना कैसे पता. ऐसे कपड़े पहनो, ऐेसे चलो, रात को घर से ना निकलो...आखिर क्यों नहीं. पढ़ाई तो हम लड़कियां भी करती हैं तो हम काम क्यों ना करें. क्यों ना अपने मन की जिंदगी जिएं. और फिर आखिर यही सब होना है तो क्यों ना कपड़ों को तिलांजली दे दी जाए. पूरे कपड़ों से ढकी लड़की के साथ भी गलत होता है तो कपड़ों से तन ढकने का अर्थ ही क्या है. सरपंच जी जमाना तो आगे बढ़ गया है लेकिन सोच वहीं की वहीं है आपकी. मैं कहती हूं कि सारा दोष पुरूषवादी मानसिकता का है जो शरीर को भोग की वस्तु समझता है. संतुष्टि का मतलब नहीं समझता है और मन पर काबू रखना नामर्दी की निशानी मानता है. आखिर सभी कुछ आप ही तय कर लेंगे तो औरत इस दुनिया में सिर्फ जन्म देने के लिए है क्या. समाज को सुधारते नहीं और चले हैं चरित्र और कपड़ों पर टिप्पणी करने. अरे सारी की सारी कानून व्यवस्था मिलकर भी मन को काबू करने का एक फार्मूला तैयार करके दिखा दे तो मानूं. फिर गलती किसकी कपड़ों की. वाह जी तो क्यों बनाए ऐसे कपड़े जो कोई पहन भी ना पाए. कतार में बैठे सभी लोग चुप थे लेकिन असमत भी. कुछ तो गुस्से में आधा खाना छोड़कर उठ गए. फिर भौजी ने मोर्चा संभाला. बोली- देखिए नाराज मत होइए लेकिन सच यही है कि मानसिकता से ऊंचा और इससे नीचा कुछ भी नहीं. औरत को इज्जत देना सीखेंगे तो ही समाज का मतलब है नहीं तो किसी को भी बहुत अधिक दबाने पर बदलाव नहीं क्रांति होती है और अराजकता फैलने का खतरा रहता है. बात तो खत्म हो गई लेकिन क्या वाकई बात सिर्फ इतनी सी ही है?