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Sunday, September 12, 2010

... और खोज जारी है

तन्हाई के इस पार, उस पार
झांकू मैं आखिर कितनी बार
मालूम है कि आंचल फैलाए
खड़ी है तू इंतजार में
रास्ता छोटा पर दूरी बड़ी है
मन से बाहर, व्याकुल मन से बाहर
आता नहीं क्यों वो
खुद बाहर आता नहीं
ना आने देता भीतर तुझे
जम गया अवसाद है शायद
रिस रिस कर टपकता है शायद
शांति, संतुष्टि या निजता के पलों को
तन्हाई के तरन्नुम में खोजता मन
खुशियों के पलों में दुख को
खोदता, टटोलता अंशात मन
वो कुछ जो ना मिल सका

उस कुछ की खोज में
नित नई खोज पर निकला
तन्हा, बावरा मेरा मन



4 comments:

RAJNISH PARIHAR said...

ये बावरा मन तो हमेशा ही विचरता रहता है न जाने किस तलाश में....ये तलाश ताउम्र चलती ही रहती है...

Asha Joglekar said...

ना आने देता भीतर तुझे
जम गया अवसाद है शायद
रिस रिस कर टपकता है शायद
शांति, संतुष्टि या निजता के पलों को
तन्हाई के तरन्नुम में खोजता मन
खुशियों के पलों में दुख को
खोदता, टटोलता अंशात मन
ऐसा क्यूं । सारी खिडकियां खोल दीजीये अवसाद बाहर और खुशी भीतर । सुंदर रचना ।

SATYA said...

सुंदर रचना


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जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

आपको पढ़कर कई तरह के भाव-विचार जागे हैं मन में। खुलकर चर्चा फिर कभी करूँगा, आज जल्दी में हूँ। सिर्फ़ इतना कहूँगा कि

"ना आने देता भीतर तुझे"

उपर्युक्त वाक्य में जो ‘ना’ का प्रयोग है, उसकी जगह ‘न’ उचित होगा। ये छोटी-छोटी ग़लतियाँ हम सभी बार-बार करते हैं। हम एक-दूसरे की त्रुटियों पर भी ध्यान आकर्षित करते/कराते रहें तो ठीक रहेगा।