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Friday, July 10, 2009

...क्योंकि ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है

इसलिए इस समाज को बदलने की सख्त जरूरत है
क्या वाकई हम बहू-बेटी के दर्जे को समझने या सम्मान करने वाला समाज हैं? ये सवाल मेरा हर उस भारतीय से है जो उस देश में रहता है जिसे दुनिया का गुरू कहा जाता है। २०० साल गुलामी की बेड़ियों में लिपटी भारत मां को इसके सपूतों ने प्राणों की आहूति देकर स्वतंत्र कराया। लेकिन ये सब किसलिए? क्या इसलिए कि एक बार फिर यहां औरतों को परंपरा और रूढ़ियों के नाम पर गुलाम बनाकर गुड़िया की तरह घर में सजा दिया जाए। अगर नहीं तो कानपुर के कॉलेजों में लड़कियों के जींस पहनने का तुगलकी फरमान किस तरफ इशारा करता है। आखिर क्या खराबी है इस पहनावे में। मैं पूछती हूं कपड़ों का उद्देश्य क्या होता है; तन को ढकना। फिर चाहे वो किसी भी तरीके से ढका जाए। दरअसल इस विचारधारा की जड़ को खोदा जाए तो मिलेगा कि इस समाज में लड़कियों को हमेशा रक्षात्मक स्तर पर रखा गया है। हमेशा उन्हें असमाजिक तत्वों का डर दिखाकर घर की कोठरी में बंद रहने की सलाह दी गई। आखिर क्यों- सवाल ये है कि क्या सलवार कमीज पहनी (जो कि इस समाज में एक सलीकेदार पहनावे के रूप में देखा जाता है) किसी राह चलती लड़की को गंदे और अश्लील कमेंट सुनने को नहीं मिलते या फिर सरेआम उठाकर उसकी आबरू को तार तार नहीं किया जाता ? फिर यहां पहनावे की भूमिका ही कहां रही ? ये पहनावा या ऐसी ही तमाम वो बंदिशें वास्तव में उस कमजोर समाज की नाकामी को बयां करती है जो अपने घर में ही बहू-बेटियों को बेइज्जत होने से बचा पाने में लाचार है। और अगर कपड़ों से ही मानसिक विकार को रोका जा सकता है तो फिर लडकों को भी धोती कुर्ता पहनकर सड़क पर निकलना चाहिए ताकि उनकी तामसिक और आपराधिक भावनाओं को काबू किया जा सके। रोकना है तो असमाजिक रूढ़िवादी सोच को रोकिए, रक्षात्मक घेरे में आपकी बेटियां कभी भी समाज में बढ़ रही आपराधिक गतिविधियों को मुंहतोड़ जवाब नहीं दे सकतीं। सिखाना है तो उन्हें गलत के खिलाफ लड़ना सिखाइए। उन्हें सिर उठाकर जीना सिखाइए ताकि ये संभावना बनी रहे कि वो मुश्किल वक्त में आत्मरक्षा कर सके। और बलात्कार का दंश झेल रही लड़की अपनी आत्मा को पवित्र समझकर नए सिरे से जिंदगी शुरू कर सके। बहू-बेटी घर की लज्जा तब है जब आप उनके अधिकारों को सौंपकर उन्हें खुद फैसला लेने की छूट दें। आक्रमणकारी बीमार तो ये समाज है और इस संक्रामित समाज की त्रासदी लड़कियां झेल रही हैं। और आखिर में कहना चाहती हूं कि नियम कानून समाज को सही दिशा-दशा देने के लिए होते हैं ताकि जीवन खुशहाल हो सके। किसी भी कानून से जीवन बेहाल तो कतई नहीं होना चाहिए।

3 comments:

समयचक्र said...

बिलकुल सही कहा है...

ओम आर्य said...

आक्रमणकारी बीमार तो ये समाज है और इस संक्रामित समाज की त्रासदी लड़कियां झेल रही हैं। और आखिर में कहना चाहती हूं कि नियम कानून समाज को सही दिशा-दशा देने के लिए होते हैं ताकि जीवन खुशहाल हो सके। किसी भी कानून से जीवन बेहाल तो कतई नहीं होना चाहिए।
bahut sahi kaha aapne .......is baat se mai bhi sahamat hun bahut hi badhiya

M VERMA said...

"किसी भी कानून से जीवन बेहाल तो कतई नहीं होना चाहिए।"
सही है. जीवन की बदहाली का कानून नकार ही दिया जाना चाहिये.