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Tuesday, May 13, 2014

कुछ सच्चाईयां...

लिखने का कुछ मन तो है
पर रचना का आकार
ना जाने क्या होगा?
क्या होगा जब
मन की किताब से धूल झड़ेगी,
और पन्नों का तब हाल
ना जाने क्या होगा?
मेरे सपनों का वो अनुपम संसार
मेरी अपनी दुनिया, इस दुनिया से पार
मेरे अस्तित्व के संघर्ष की कथा
कभी कैद, कभी स्तब्ध
अंजान, गुमसुम सी व्यथा
कह तो दूं सब कुछ मगर,
दिल में दबे उस राज के
रौशन हो जाने के बाद
ना जाने क्या होगा?  
क्या हो गर मन दे आदेश 
लेकिन अक्षर ही बगावत कर दें
ना लिखने दें, ना कहने दें
अवसाद को अविरल ना बहने दें
सोचती हूं कि डर किसका ज्यादा है
अन्जानों का या अपनों का
या फिर अपनों से बंध चुके
मेरे ही कुछ सपनों का
फिर सोचा क्यों ना तन्हा ही
इस किताब के पन्ने पलट लूं
ढके, छिपे उस कठोर सत्य
से टरकाने का अंजाम
ना जाने क्या होगा...

Tuesday, July 24, 2012

प्रकृति से दो बात

इससे पहले कि
कोई मुझे पुकार ले
कि मैं व्यस्त हो जाऊं
इससे पहले कि
दिन शुरू हो और
अंतहीन सिलसिला चलेे निकले
इससे पहले कि
मेरा लाडला उठे और
उसे गोद में मैं उठाऊं
इससे पहले कि
मोह-माया मुझे खींचे
और मैं फिर बंध जाऊं हिंदी
चल चलें कुछ पल के लिए
जहां सबसे पहले
तू मेरे लिए, मैं तेरे लिए
जहां सबसे पहले
तू गोद में ले मुझे, सहलाए
जहां सबसे पहले
मैं पवन संग उडूं, तू गाए
पत्तों को छुऊं, तू गुनगुनाए
लंबी सांस लूं , तू लहराए
मैं तेरी खूबसूरती निहारूं
तू मेरी कमियां गिनाए
जहां सबसे पहले
हम खुशी और संतुष्टि
की दूरियां घटाएं
कुछ ऐसे कि एक-दूजे में
ये घुल-मिल जाएं
चल फिर एक बार आज
      सृजन करें
एक निच्छल कविता का.





Monday, July 23, 2012

कपड़ों पर कांय-कांय

सारा का सारा गांव जमा था भौजी के घर भोज में... भौजी के घर लक्ष्मी ने जो दस्तक दी थी. नाम रखा गया खुशी. जैसे कि परंपरा थी सारा गांव एक साथ एक कतार में भोज में खाने के लिए बैठा. रामदीन ने कहा अरे भई सलाद तो दो कि खाना खत्म होने पर तुमरे सलाद की थाली लुगाई की तरह बाहर निकलेगी. सभी हंस दिए तो जमुना बोली क्या चाचा आप भी, लुगाइयां तो खाना परोसने में लगी हैं जरा सब्र तो करो. एक तरफ से आवाज आई अरे भई जल्दी जल्दी खाना खाओ फिर जमुना के घर वो आमिर भाई का नया नाटक शुरू हुआ है वो भी तो देखना है. दूसरी आवाज आई अरे क्या खाक देखना है सभी नाटक तो एक तरह के ही हैं. छोटे-छोटे कपड़े पहन कर बेशरम लड़कियां खड़ी कर देंगे और आधा घंटा बस उन्हें ही निहारते रहो. फिर कोई बोला- नहीं भई ये कार्यक्रम ऐसा नहीं है ये तो कुछ अलग है, समाज की आंखे खोल देगा, ऐसा कुछ बता रहे थे टीवी पर. जवाब मिला- अरे खाक डालो ऐसे टीवी पर जहां देखो अश्लीलला फैली हुई है. परिवार के साथ तो आप देख ही नहीं सकते एक भी मिनट. मैं तो कहता हूं कि वो जो गुवाहाटी में उस बेशरम लड़की के साथ हुआ एक तरह से ठीक ही हुआ. उसके कपड़े देखे आपने. और तो और वो क्या कहते हैं उसे दारूखाना...हां  पब-वब से बाहर आ रही थी. कोई दूध की धुली तो ना होगी वो छोरी. फिर रात को घर से अकेले निकलने को कहा किसने है. जमाना देखा है, कितना खराब है. कतार में बैठे सभी मर्दों ने चाचा की इस बात पर हामी में सिर हिला दिया. ये सारी बातें सुनकर जमुना तैश में आ गई. चाचा क्या बोले जा रहे हो- अरे जमाना आपसे और हमसे ही तो बनता है. उस लड़की के साथ जो कुछ हुआ उसमें उसके कपड़े कहां से आ गए. मैने देखा है कि टीवी पर, वो लड़के पहले उसे छेड़खानी कर रहे थे तभी ये सब कुछ हुआ. बेचारी लड़की. हाय... काहे की बेचारी. अपने मां-बाप का नाम डुबो दिया ससुरी ने. अरे जो उसके साथ हुआ वो तो किसी के भी साथ हो सकता है, ये सब तो मर्दों के दिमाग की गंदगी है. जो लड़की को सिर्फ भोग की चीज समझकर उसे किसी भी तरह से प्रताड़ित करते रहते हैं. ये सब तो आजकर सड़कों पर, बसों में औऱ कालेज जाते वक्त किसी भी लड़की के साथ आए दिन होता रहता है. लेकिन बेचारी लड़कियां चुप होकर रह जाती हैं. उस लड़की ने इसका विरोध किया तो इसकी ये सज़ा. तभी गांव के सरपंच बोले अरी जमुना तू काहे उसका इतना साथ दे रही है उस लड़की का गलत चरित्र ही इसके लिए जिम्मेदार है. अब जमुना गुस्से से उबल पड़ी. सरपंच जी आपको उसके चरित्र के बारे में इतना कैसे पता. ऐसे कपड़े पहनो, ऐेसे चलो, रात को घर से ना निकलो...आखिर क्यों नहीं. पढ़ाई तो हम लड़कियां भी करती हैं तो हम काम क्यों ना करें. क्यों ना अपने मन की जिंदगी जिएं. और फिर आखिर यही सब होना है तो क्यों ना कपड़ों को तिलांजली दे दी जाए. पूरे कपड़ों से ढकी लड़की के साथ भी गलत होता है तो कपड़ों से तन ढकने का अर्थ ही क्या है. सरपंच जी जमाना तो आगे बढ़ गया है लेकिन सोच वहीं की वहीं है आपकी. मैं कहती हूं कि सारा दोष पुरूषवादी मानसिकता का है जो शरीर को भोग की वस्तु समझता है. संतुष्टि का मतलब नहीं समझता है और मन पर काबू रखना नामर्दी की निशानी मानता है. आखिर सभी कुछ आप ही तय कर लेंगे तो औरत इस दुनिया में सिर्फ जन्म देने के लिए है क्या. समाज को सुधारते नहीं और चले हैं चरित्र और कपड़ों पर टिप्पणी करने. अरे सारी की सारी कानून व्यवस्था मिलकर भी मन को काबू करने का एक फार्मूला तैयार करके दिखा दे तो मानूं. फिर गलती किसकी कपड़ों की. वाह जी तो क्यों बनाए ऐसे कपड़े जो कोई पहन भी ना पाए.  कतार में बैठे सभी लोग चुप थे लेकिन असमत भी. कुछ तो गुस्से में आधा खाना छोड़कर उठ गए. फिर भौजी ने मोर्चा संभाला. बोली- देखिए नाराज मत होइए लेकिन सच यही है कि मानसिकता से ऊंचा और इससे नीचा कुछ भी नहीं. औरत को इज्जत देना सीखेंगे तो ही समाज का मतलब है नहीं तो किसी को भी बहुत अधिक दबाने पर बदलाव नहीं क्रांति होती है और अराजकता फैलने का खतरा रहता है. बात तो खत्म हो गई लेकिन क्या वाकई बात सिर्फ इतनी सी ही है?
   

Saturday, October 29, 2011

वो अनुभव...पहला पहला

जी हां, पता है कि बहुत दिन हो गए हैं लैपटॉप पर अंगुलियां नचाते हुए। बहुत पानी बह गया इन बीते दिनों में। बहुत कुछ बदल गया है; कुछ मेरे अंदर और बहुत कुछ मेरे आस-पास। हम दो से तीन हो गए। उसे अपने भीतर तो महसूस कर रही थी लेकिन सामने देखकर आंखें नम हो गईं। उसके नन्हे हाथों ने और कोमल अहसास ने सारे दुख भुला दिए। वो आया औऱ आते ही मुझे व्यस्त कर दिया। मेरी दुनिया को ढेर सारे रंगों से भर दिया। अब पता चला कि दुनिया की सबसे बड़ी खुशी क्या है। मुझे मेरे नाम से बढ़ाकर मां का दर्जा देकर उसने मुझे धन्य कर दिया। हर अनुभव पहला ही होता है लेकिन ये अनुभव हर मां को जीवन भर याद रहता है। मैंने अपने शरीर के इस हिस्से का नाम अंश रखा है। मुझे अहसास हो रहा है कि मुझ पर अब कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। उसे एक अच्छा इंसान, एक जिम्मेदार नागरिक औऱ संवेदनशील प्राणी बनाने का भार मुझ पर है। बात सिर्फ इतनी है कि एक नन्ही जान को जन्म देना ही बड़ी बात क्या है, बात तो उसे अच्छे संस्कार देना और अपने आस पास की दुनिया के समझने की सही समझ देना है। जो सिर्फ हम कर सकते हैं। तो क्यों नहीं हम उन्हें परियों की कहानी सुनाने के बदले अन्ना का संघर्ष सुनाएं। उन्हें देश पर प्राण न्योच्छावर करने वाले वीरों के बारे में बताएं। क्यों ना उन्हें असलहों के बदले कलम के महत्व से रूबरू करवाएं। मैं तो ऐसा करने वाली हूं और आप सभी से भी ऐसा ही करने की आशा करती हूं.

Sunday, June 5, 2011

अगुवाई की छवि से बाहर निकलो

शनिवार की रात दिल्ली के रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ उसे देखकर तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि बेचारा सत्याग्रह, बेचारा आंदोलन और बेबस जनता। ना मुद्दा रहा, ना आंदोलन और डंडे पड़े सो अलग। और फिर मीडिया तो बाबामय हो ही गया है। मुहिम जाए भाड़ में। वैसे एक बात है भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं। हां ऐसा नहीं होना जरूर चमत्कार कहा जा सकता है। इस घटना के बाद अब जरा आप मिस्र और भारत की तुलना कीजिए। भारत जैसा बड़ा विकासशील देश, करोड़ों की जनसंख्या से लदा और प्रगति के पथ पर अग्रसर इस देश के आगे मिस्र तो कहीं भी नहीं ठहरता। लेकिन उस देश में बिना किसी अगुवाई, बिना किसी नेता या बाबा के ऐसी ऐतिहासिक क्रांति हुई कि तहरीर चौक हमेशा के लिए अमर हो गया। तानाशाह सरकार के पांव उखाड़ने के लिए वहां एक साधारण सी लड़की ने मोबाइल पर मैसेज और वीडियो का सहारा लिया। बस फिर क्या था सारी जनता इस मुहिम में जान हथेली पर लेकर जुट गई। अब जरा लौट कर आते हैं भारत की सरजमीं पर। यहां हमें यानि जनता को किसी अन्ना या फिर किसी बाबा की अगुवाई की सख्त जरूरत महसूस होती है। हमारी ये जरूरत सत्ता खूब जानती है तभी तो जनहित में शुरू हुई कोई भी मुहिम राजनीति की कुटिल चालों की आसानी से शिकार हो जाती है। अन्ना हजारे की लोकपाल बिल मुहिम पर कभी सीडी कांड तो कभी सदस्यों के बीच असहमति की गाज गिरती ही रहती है। और फिर बाबा रामदेव का शुरू किया गया आंदोलन महाभारत की युद्धभूमि में बदल गया। मैं पूछती हूं आखिर मिला क्या। काला धन और भ्रष्टाचार मुद्दा तो हवा हो गया और तो और बाबा की जनहित मंशा पर भी सवालिया निशान लग गये हैं। इस सबसे नुकसान सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार की मुहिम को हुआ है। बाबा और सरकार के बीच गुपचुप या सार्वजनिक रूप से जो कुछ भी हुआ उसपर हमें और आपको शर्म आनी चाहिए। बाबा की जादुई छवि में भ्रष्टाचार आंदोलन का धुलना हमारी हार ही तो है। सत्ता तो स्वार्थी है ही, फिर बाबा भी अपनी छवि बढ़ाने के फेर में फंसते चले गए। वैसे वक्त अभी भी है। ये हमारी समस्या है। इसके लिए कोई बाबा क्यों अगुवाई करे। क्यों ना हम आप ही मिलकर इसे सफल बनाएं।

Friday, February 4, 2011

... यूं ही एक दिन

"...कितनी सुन्दर लगेगी, वैसे भी चंचल का रंग उस लड़की से ज्यादा साफ है। और फिर चंचल यकीनन उससे कई गुना सुंदर है", अचानक आशीष ठिठककर रुक गया "अरे मैं भी पागल ही हूं, क्या अपने आप से बड़बड़ाए जा रहा हूं। फिर मैने उस लड़की को देखा ही कहां। लेकिन जो भी है, सुनील ने बताया तो था कि वो लड़की जरा पक्के रंग की है लेकिन सुंदर है"। हल्की सी मुस्कान होंठों पर तैरने लगी और आशीष सिर झटककर आगे बढ़ गया। आज तो जैसे सारी दुनिया को चीरकर बस किसी तरह जल्द से जल्द घर पहुंचने को आतुर था आशीष। बेसब्र मन पंख लगाकर घर की चौखट पर जा गिरने को है।
हर रोज घर से बस स्टैंड और बस स्टैंड से घर तक के पैदल सफर में आशीष न जाने कितनी बार रास्ते में आने वाली लगभग हर चीज को मनभर गाली देता, कोसता। फिर चाहे वो सड़क के कोने में खड़ी फूस की अवैध झुग्गियां हों, ऊपर तक भरे गंदे नाले हों, प्रशासन की उन्हें हटाने में नाकामी की दास्तां हो, धूल-धुआं या फिर मंजिल तक पहुंचने की होड़ में भागती गाड़ियों का शोर। हर उस साये से नफरत है आशीष को जो इस गंदगी के करीब ले जाए उसे। कभी सरकार की विफलता, तो कभी शराब के ठेके पर धुत शराबियों का दिन भर की ढियाड़ी को जहर के गिलास पर मस्ती से उड़ाना, कभी पानी की बूंद-बूंद के लिए सड़क के बीच मारपीट तो कभी सर्द मौसम में दो चिथड़ों टांगे नंगे पांव साइकिल का टायर घुमाते बच्चे। मुश्किल से पंद्रह मिनट का वो रास्ता आशीष के लिए आधे घंटे में बदल जाता।
"इस इलाके में रहना अच्छा तो नहीं लगता यार लेकिन क्या किया जाए। साली नौकरी की मजबूरी और तंग हाथ सब कुछ कराता है", आशीष अपने दोस्त सुनील से रोज यही कहता।
लेकिन आज... आज बात कुछ और ही है। कुछ सोचकर मन की तरंगें कुलांचे भरने लगीं। पैरों का भारीपन, ऑफिस की थकान और झुग्गी का वो उबाऊ माहौल, कुछ भी तो उसे विचलित नहीं कर पा रहा है। आज उसकी आंखों के सामने प्यारी सी चंचल खड़ी है। सुर्ख गुलाबी सूट में और हां... वही गुलाबी सैंडि़ल भी पहनी है छुटकी ने। वो घूम रही है बार-बार। थोड़ा आगे चलती, थोड़ा पीछे फिर किसी फिल्म की हीरोइन की तरह बलखाकर चाल दिखाती। "... अरे अरे जरा संभलकर। गिर जाओगी" कहकर आशीष ने झट से दोनों हाथ रक्षात्मक मुद्रा में आगे बढ़ा दिए। नजरें इधर-उधर दौड़ाईं तो चंचल ओझल हो चुकी थी।
आशीष शरारती मुस्कान चेहरे पर लिए आगे बढ़ गया। लेकिन ये क्या... घर की तरफ बढ़ते कदम अचानक धीमे क्यों पड़ गए? उमंगों के इस शांत सागर में दूर से चली आ रही इन विरोधाभाषी लहरों का रुख इस ओर क्यों है? "ये मुझे क्या हो रहा है। एक पल पहले तक तो मैं खुशी के सागर में डुबकियां लगा रहा था लेकिन फिर दूसरे ही पल मन उदास सा क्यों होने लगा है" आशीष को कुछ समझ में नहीं आया। उसने सिर नीचे किया फिर उंगलियों को बालों में पीछे की ओर नचाया और बस... उदासी की वजह गुलाब दुपट्टा ओढ़े सामने ही खड़ी थी। जिस अनचाहे डर को बस से उतरकर इतनी देर से भुलाने की कोशिश करता रहा आशीष, वही डर उसके सपनों की रंगीन दुनिया को काला करने की कोशिश में कामयाब हो रहा था।
अभी कुछ देर पहले की ही तो बात है। हर एक सीन उसकी आंखों के आगे नाचने लगा। सुनील के साथ घर वापस लौटते हुए किस्मत से आज बस में एक सीट खाली मिली। धप्पाक से मैं उस सीट पर बैठ गया। आधे घंटे बाद एक तेज झटके ने मेरी नींद तोड़ दी। मेरे चेहरे पर गुस्से और फिर खुशी के मिले जुले भाव उभर आए। गुस्सा नींद टूटने की झुंझलाहट का साक्षी था और खुशी मिली मुझे उस भीनी सी परिचित खुशबू से। गर्दन घुमाकर अपनी बायीं ओर देखा तो ठीक मेरे सामने गुलाबी सूट पहने एक लड़की भीड़ में जगह पाने की जद्दोजेहद में थी। एक बारगी तो मन हुआ कि उठ जाऊं और फिर मैं लेडीज़ सीट पर बैठा था लेकिन रास्ते की दूरी के अहसास ने त्याग की बलवती इच्छा को दबा दिया। उस लड़की का चेहरा तो नहीं देख पाया लेकिन उसी गुलाबी सूट में सजी अपनी छुटकी की कल्पना जरूर की। कब से पीछे पड़ी है "भइया गुलाबी सूट और गुलाबी सैंडिल ला दो ना"। बिल्कुल... इस बार तो छुटकी की इच्छा गुलाबी चुनरी जरूर ओढ़ेगी। आखिर बोनस के पैसों से सबसे पहला काम यही तो करना है। ये सोचकर आशीष की आंखों में चमक आ गई। इसी बीच बस में हलचल के साथ शोर-शराबा बढ़ गया था। कुछ मनचले शायद बहुत देर से गुलाबी सूट वाली लड़की को छेड़ रहे थे। मेरी सीट के पास खड़े सुनील ने मुझे कोहनी मारकर कहा " देख ना आशु, उसका यार भी आ गया है पीछे से। हां भाई... इस जैसी सुंदरी को बचाने नहीं आएगा तो क्या तुझे या मुझे बचाएगा। वैसे बड़ा किस्मत वाला है जो ऐसी पटाखा मिली है, क्या कहते हो"? शोर बढ़ रहा था। देखते ही देखते बात हाथापाई पर उतर आई। भीड़ की वजह से ज्यादा तो कुछ नहीं देख पाया हां लेकिन उन बदमाशों ने लड़की का दुपट्टा खींचकर उसे बस से नीचे धक्का दे दिया। लड़की का दाया हाथ विपरीत दिशा में तेजी से आते एक दुपहिया स्कूटर के नीचे आ गया। लड़की चिल्लाती रही। मैं, सुनील और बस में बैठे सभी यात्री चुप थे। बुत बनकर केवल तमाशा देखा जा रहा था। "ओफ्फ यार... मैं ही अकेला क्या करता। और भी तो लोग थे बस में, सभी चुप थे। और फिर उन सालों का क्या भरोसा। कहीं चाकू-छुरी निकाल लेते तो फालतू में मैं तो जाता ना जान से। और फिर वो लड़की भी कुच वैसी ही लगी। कोई दूध की धूली हुई तो नहीं थी आखिर अपने ब्यॉयफ्रेंड के साथ जो थी। जाने घरवालों से क्या बोलकर निकली थी। छि: क्या जमाना आ गया है"। ऐसी-वैसी ढेर सारी बातें मन में सोचकर उस उमड़ते काले तूफानी साए को आशीष ने शांत करने की भरपूर कोशिश की। आशीष सोच में ही डूबा था कि उसे अहसास हुआ कि उसके कदम घर की चौखट पर आ पहुंचे हैं। उसे थोड़ा आश्चर्य जरूर हुआ क्योंकि घर का दरवाजा अधखुला था। बैग सोफे पर फैंका और टाई ढीली करते हुए चिल्लाया- छुटकी...छुटकी... अंदर से कोई आवाज नहीं आई। आशीष कुछ सोचकर मुस्कुराया। "अच्छा बाबा छुटकी नहीं, तू अब बड़ी हो गई है। नाराज मत हो मैं तुझे तेरे नाम से ही बुलाऊंगा। चंचल अब तो बाहर आ और हां वो कांच के गिलास में ही पानी लाना"।
बहुत देर तक कोई हलचल ना होने पर आशीष का मन किसी आशंका के डर से घबराया। वो उठा और चंचल का कमरा, किचन, अपना कमरा, घर के पीछे छोटा सा बगीचा सभी जगह टटोला। " घर तो खाली है आखिर कहां गई चंचल"। तभी घड़ी ने आठ बजे का घंटा बजाया और चिंता की लकीरें उसकी माथे पर गहरा गईं। शायद जिस तूफान की आशंका उसे सता रही थी वो आ चुका था। आशीष ने खुद को उस तूफान की गिरफ्त में कसता हुआ महसूस किया। अचानक किसी के कदमों की आहट ठंडी पवन का झोंका संग लेकर आई। उसने सिर उठाया तो देखा कि मां सामने खड़ी है। मां के पैरों में दोनों हाथ टिकाककर उसने कहा "पाय लागू मां, अरे आप... कब आईं ? मुझे फोन कर देतीं, मैं स्टेशन पर लेने आ जाता। अच्छा आपने ही छुटकी को कहीं भेजा होगा और मैं कबसे चिंता कर रहा था"। ये सब आशीष ने एक सांस में ही कह डाला जैसे कुछ भी नकारात्मक सुनने से खुद को रोक रहा हो। फिर पलटा और मां के लिए एक गलास ट्रे में रखकर वहीं एक कोने में बोनस समेत अपनी सैलेरी सजा दी।
"आशु बेटा, मैं तो सुबह ही आ गई थी। पड़ोस का संजू ही मुझे स्टेशन पर लेने पहुंच गया था। इस बार छुटकी के लिए उसका मनपसंद गुलाबी सूट और सैंडिल ले ही आई। सोचा क्या करेंगे पैंशन के पैसों का जब छुटकी के असमान भी पूरे ना कर पाए तो। मन पक्का किया और बड़े बाजार से सस्ते सौदे में ले आई। वही पहनकर तो गई है सुषमा को चिढ़ाने। और बेटा अकेली थोड़े ही गई है हमारा गबरू जवान संजू भी तो उसके साथ गया है। जिद करने लगा, मैं भी दीदी के साथ जाऊंगा। मैं उसी के घर से तो आ... "। मां शब्द पूरे भी नहीं कर पाई थी कि आशीष के हाथों से डगमगाती ट्रे जमीन पर गिर गई। कांच का गिलास छिटटकर कई टुकड़ों की शक्ल में कमरे में फैल गया। उसकी आंखों के सामने अब घुप्प अंधेरा था। लगा कि जैसे कमरे में वो अकेला है। बेसहारा, बेबस। वो प्यारी सी छुटकी की आकृति... गुलाबी सूट में जाने क्यों धीरे धीरे दूर जा रही थी। और सूट की दायीं बाजू में ये लाल रंग कैसा है। और ठीक उसी पल वो शर्मनाक वाकया उसकी आंखों के सामने तैर गया। आशीष चिल्लाया " मैं उसे बचा सकता था। मैं... मैं अगर हिम्मत करता तो चिल्लाकर भीड़ इकठ्ठी कर सकता था। शायद वो गुंडे डर जाते। वो लड़की... वो गुलाबी सूट बच जाता। हे भगवान, उस लड़के ने मेरी छुटकी को बचा लिया हो। शुक्र है कोई तो था छुटकी के साथ"। मां बेहद आश्चर्य से आशीष को निहार रही थी। एक दो बार उसे सम्भालने की नाकाम कोशिश भी की। आशीष से ध्यान हटा तो मां ने ट्रे की तरफ देखा तो सफेद लिफाफा पूरी तरह भीग चुका था और अंदर पड़े नोट भी। मां जल्दी से भीगे नोट बटोरने लगी।
"बहुत देर हो चुकी है मां। कोई फायदा नहीं... कोई फायदा नहीं", बड़बड़ाता हुआ आशीष दरवाजे की तरफ गया और नंगे पांव ही गंदी बस्ती की तरफ दौड़ पड़ा।

Tuesday, December 14, 2010

२ जी स्पैक्ट्रम घोटाला फ़ाइल बंद

जी हां ये सच है। मैं ये दावे के साथ कह सकती हूं। ये सूचना उन सभी भारतवासियों के लिए है जो सोच रहे हैं कि २ जी स्पैक्ट्रम घोटाले की छानबीन का कुछ नतीजा निकलेगा या निकलने वाला है। कुछ नहीं होने वाला देश के सबसे शर्मनाक इस घोटाले का। बाकी सभी घोटालों की तरह ये भी सांठगांठ की भेंट चढ़ जाएगा। कोई भी समझदार भारतीय ये बात आसानी से समझ सकता है कि भैंस के आगे बीन बजाने से कुछ नहीं होने वाला। आखिर क्या हुआ भोपाल गैस कांड का, या फिर क्या हुआ रक्षा सौदों से जुड़े तहलका खुलासे का या फिर गोधरा कांड के पीछे छिपे असली दरिंदों का। और फिर भई स्पैक्ट्रम घोटाले में तो खबरों की खबर लेने वाले मीडिया के ही कुछ दिग्गजों के दिमाग भिड़े हुए हैं तो फिर इसका तो कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। इस शर्मनाक घोटाले में साफ सुथरी छवि रखने वाले हमारे भोले भाले प्रधानमंत्री का नाम भी सीधे-सीधे उछला है। उन्हीं के मंत्रालय की तरफ से लिखी गई चिठ्ठियां सार्वजनिक कर दी गईं हैं। तो फिर सबसे बड़ा सवाल तो ये रहा कि आखिर जवाब देगा कौन और अपराधियों से जवाब लेगा कौन ? जनता के पैरोकार कुछ मीडियाकर्मी आज खुद सवालों के घेरे में हैं। राजनीतिज्ञों, मीडियाकर्मी और कॉरपोरेट सेक्टर की ये नापाक सांठगांठ एक घिनौने भ्रष्ट समाज की तरफ इशारा करती है। वो समाज जिसमें जनता की गाढ़ी कमाई सत्ता के केंद्र में बैठे लोग मिलबांट कर मजे से उड़ा रहे हैं। छि: घिन्न आनी चाहिए हर भारतीय को इस गंदी सांठगांठ से। और सभी को मिलकर इन चुंनिंदा गंदी मछलियों को लोकतंत्र की पावन नदी से निकाल कर दूर फैंक देना चाहिए। ताकि ये किनारे पर सड़कर अपनी गति को प्राप्त करें।