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Thursday, June 12, 2008

अन्जान

ये कौन सी जमीं है ये कौन सा आसमां
कि हर तरफ है शोरगुल का ही समां
सहमा बचपन, भटका युवा मन
नशे की देवी को करता भविष्य अर्पण
अंधी दौड़ में पगलाया, सुलगता जीवन

लुटती आबरु, बहता लहू
जलता आशियाना, वादों का सड़ता खजाना
भूख से व्याकुल सुबह यहां की
ठंड से कांपती शाम है।।।
दिलों में उफनती नफरत, आंखों में तैरता डर
घुट घुट कर जीवन वृक्ष रहा है मर
गांव में सूखा पड़ा है कुंआ
किसे है परवाह कि
यहां तो जिस्मों से उठ रहा है धुंआ
खून से सने चेहरों पर नाचती वो बेशर्म हंसी
परिचितों में भी महसूस होती अपनों की कमीट
नम पलकों से टपकटी रात गहराती चली जाती है
भरी महफिल में मनहूस तन्हाई काटने चली आती है

कौन सी जमीं है ये कौन सा आसमां
अफसोस क्या यही है मेरा भारत महान

2 comments:

kaushal said...

कविता एक कठोर सच्चाई को दिखाती है।

Unknown said...

बोलो, कौन रोकता है. लिखो कौन रोकता है. रोओ कौन रोकता है. यह जमाना बड़ा जालिम है. कोई किसी के आंसू नहीं पोछता है. मुकुंद
09914401230