प्रकृति को स्त्री का मानवीकृत रूप मानकर सभी पहरों का बचपन से लेकर यौवन तक की कहानी
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फूटे नवल किरण, कर प्रणय आगाज
दिशा-दिशा गुंजित कर छेड़े साज
केसरिया चुनर ओढ़े स्वर्णिम ललाट नार
शरमाती, लहराती कुमकुम संग करे श्रृंगार
बलखाकर छेड़े मृदु सुरों के तार
अगणित रंगों संग सृष्टि सजाती
नैनों से हृदय तक आती
चीर पाषाण, पावन नीर बहाती
मदमस्त पवन अंग-अंग लिपटाती
चटककर कली, कुसुम बन जाती
तेरा अस्तित्व मात्र जीवन आधार
मुख तेज से उज्जवलित संसार
काल चक्र गतिमत करता तेरा आकार
चमकीली धूप आंचल की तेरे
जीवन से लेती साक्षात्कार
रजनी को दुर्लभ रत्न चढ़ाकर
आमंत्रित करती चंद्र बुलाकर
दूर छिपा उसे तके प्रभाकर
कजरारे नैनों से कर निष्क्रिय
जीवट करती, फिर भोर खिलाकर
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3 comments:
बहुत उम्दा.
बढ़िया है, ऐसी कविताएं लिखते रहिए।
शब्दों का सुरम्य प्रयोग..
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