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Friday, August 28, 2009

तन्हाई की कलम से....



घर से दूर रहने के बाद दो बातों का अहसास और अहमियत बखूबी हुआ है मुझे... एक परिवार और दूसरा अकेलापन। पहली बार अहसास हुआ कि तन्हाई उपजाऊ भी हो सकती है...
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चार दीवारी की अदृश्य शक्ति
चढ़ती-उतरती सांसों की प्रेरणा
तन्हा दिन और बोरिंग रातों की
नमी स्याही बन गई
भावनाएं शब्दों का रूप लेने लगीं
मन कलम बन गया और
शरीर एक आत्मा
फिर क्या था
जो तन्हाई कहती, आत्मा वही करती
शब्दों के कोंपल फूटने लगे
तब समझ में आया
अकेलापन उपजाऊ है
बंजर मन की धरा पर भी
रचनात्मकता की फसल उग सकती है
आज फिर वही रात है
तन्हाई हल लेकर निकल पड़ी है
और रचना की लहलहाती फसल उग गई

यूं ही कभी तन्हाई, बावरी पवन से जा टकराती
थोड़ी नोंक-झोंक, थोड़ी तू-तू मैं-मैं
फिर गुपचुप सुलह हो जाती
और उसकी लहराती जुल्फें
मेरे तन से लिपट जातीं
सांत्वनां बंधाती मेरी अपनी बनकर
वो चुप सुनती, मैं ढेरों बातें करती
अपनी हरियाली मेरी आत्मा में
उड़ेलकर तड़पते मन को शान्त कर देती
हां... मैं लेकर सुखी
और वो देकर खुश.......
..जीवन के सुरों से टकराकर तन्हाई तरन्नुम बन गई...






3 comments:

शारदा अरोरा said...

आज फिर तन्हाई ने अपनी उपजाऊ जमीन और फसल की बातें की हैं , वाह ,सुन्दर

Dr. Shreesh K. Pathak said...

"अकेलापन उपजाऊ है" प्रभावी लेखन और जीवन के सूत्रों तक स्पर्श....बधाई हो ..

sandhyagupta said...

Aap yun hi khoolkar bolti aur likhti rahen.