बहुत खुश हूं तो कुछ लिख दूं
दुखी हूं तो कुछ लिख दूं
संतुष्ट हूं तो संतृप्ति का डर
क्यों भला मन रंगता है पन्नों को
इच्छा मन की, दोष कलम का
नाइंसाफी नहीं तो क्या है
फिर करूं भी तो क्या
उलझन की डोर यूं ही नहीं खुलती
लिखते लिखते मोड़ आते हैं
मिलते हैं रास्ते, शब्द जुड़ते हैं
कारवां बनता है
अचानक मंजिल मिल जाती है
फिर... वही संतुष्टि और संतृप्ति का डर
हां, शायद डर ही है
जो प्रेरणा देता है, हौसला बधांता है
कहता है बढ़ता चल
वरना निगल जाऊंगा तुझे
और मैं चलती चली जाती हूं
लिखती चली जाती हूं
डर के गर्भ से नई रचना का जन्म
अदभुत मगर सच
डर मेरे, तेरे सबके भीतर
मानो तो शक्ति, ना मानो तो भूत
..... तो बढ़ता चल... लड़ता चल
7 comments:
बहुत खूब
डर प्रेरणा दे रहा है आगे बढने को
सुन्दर रचना
चलिए कारण जो भी हो, कम से कम नये सृजन का कारक तो है। बहुत खूब।
सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
सुन्दर अभिव्यक्ति है धन्यवाद्
achhi abhivyakti ka prayas.
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
अच्छी अभिव्यक्ति है .. चलते रहने की .. लिखते जाने की !!
Bhut khub ..apne apni rachna k madhyam se bta diya k Darr hi hai jo hme age badhne ki prerna deta hai.
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