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Sunday, August 22, 2010

जिंदगी ए जिंदगी

जिंदगी तेरे आगाज पर
मैं फिर से जीने लगी हूं
अब अंजाम तू ही देखना
रात की बाहों में पला सपना
भोर के उजास में पैरों तले
कुचला ना जाए, तू देखना
हौसलों से सींचीं मन की बगिया
कहीं बागबां की ठोकर से
उजड़ ना जाए, तू देखना
देखना कि स्वाभिमान की सांसें
यूं ही चलती रहें निरंतर
देखना कि अच्छाई की डगर से
पैर फिसल ना जाए किसी पल
तू ही देखना तुझ पर मेरा भरोसा
कोई लुटेरा ना लूट जाए कहीं
दे गर तू लाख मुश्किलें
तो समझदारी का अमृत भी
मुझ प्यासे रेगिस्तान में हो
तू देखना ए जिंदगी

1 comment:

RAJNISH PARIHAR said...

तभी तो कहते है....जिंदगी..कैसी है ये पहेली हाय...