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Monday, October 12, 2009

आइना... मेरा चेहरा

अरे! आज घर में ये हलचल कैसी ? शायद कोई उत्सव है... हां, इतनी चहल-पहल में भला आज मेरे लिए किसी के पास वक्त ही कहां। ओह! नहीं, शायद मैं गलत हूं... वो दूसरे कमरे से सीमा यहीं चली आ रही है। सीमा तो आज पूर्णिमा के चांद की तरह दमक रही है और गजरा उसके केशों की शोभा को कितना बढ़ा रहा है। हमेशा की तरह आज भी खुशी से चहक रही है। हां, लेकिन आज सीमा के रुख में कुछ बदलाव है। सभ्यता से खड़ी, विशुद्ध भारतीय लिबास में, शर्म का दुपट्टा ओढ़े, खुद को संवारती... जब अनायास ही आंखों से आंखें मिलती हैं तो हल्की सी मुस्कान के साथ सिर झुकाकर मुझसे नजरें फेर लेती है। फिर मुझे छूकर अपनी सुंदरता को मेरे जरिए स्पर्श करती है। और एक जौहरी की तरह अपने गहनों को परखते हुए गर्वांवित महसूस करती है।
"सीमा जल्दी कर, कब से इस आइने के सामने खड़ी खुद को निहारती रहेगी, मेहमान आने ही वाले हैं"। मां के शब्दों को सुनते ही सीमा संभलते हुए जल्दी से उसी दिशा में मुड़ गई और मैं एक बार फिर अपने सूनेपन से जूझने के लिए अकेला छोड़ दिया गया हूं। अब सिर्फ मैं हूं और संग है दीवार पर टंगा लकड़ी का ये ढांचा। हम दोनों तन्हाइयों में एक दूसरे का सहारा भी हैं और साथी भी।
सीमा के जाने से उसका प्रतिबिंब भी मिट गया और मैं फिर अमूर्त हो गया। बिन आकृति मेरा शरीर पारदर्शी कफन पहनी लाश के समान है। सीमा के लिए तो मैं केवल आइना हूं लेकिन मेरे लिए वो अस्तित्व है, संजीवनी है। मेरे सामने खड़े होने से मेरा अस्तित्व उसके शरीर का ही अंग बन जाता है। नहीं तो मैं स्वयं शून्य हूं।
अनिच्छा से इस अजीर्ण शरीर के साथ यहां अचल, स्थिर मैं निराश हूं। प्रतीक्षा के ढेरों पलों को बटोरते बटोरते थक चुका हूं। इंतजार किसी आकृति का, जिसकी प्रतिछाया देगी इस मरी काया को क्षणिक जीवन और एक नई कहानी। सालों से यहां पड़ा मैं परिवार के सदस्यों को निहार रहा हूं। सीमा और अक्षत को तो बचपन की अठखेलियों से जवानी के पड़ाव तक रोते हंसते देखा है। खुशी में चहककर मेरे पास आते और अपनी मीठी मुस्कान बिखेरकर हजारों बार मेरे शरीर में उभरे अपने प्रतिबिंब को चूमकर खुशी जाहिर करते... कभी उदासी में सुबकते हुए न जाने मुझसे कितनी ही बातें कह जाते। वो एक पल मन उनकी खुशी में हरा भी हो जाता और उनके दुख में आंसुओं की गंगा भी बहाता। मन सोचता "भावनाओं के इस उमड़ते सागर को किस तरह शांत करूं। कटे हाथों के इस मूक शरीर से कैसे अपनी खुशी दिखाऊं... कैसे उनके दुख सहलाऊं " ? लेकिन सच तो ये भी है कि अक्षत और सीमा मुझसे नहीं बल्कि खुद से बातें करते हैं। वास्तव में मैं होते हुए भी नहीं हूं। रुप है पर काया नहीं, आकृति है पर अस्तित्व नहीं... हां वस्तु हूं मैं व्यक्ति नहीं....