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Thursday, July 9, 2009

उफ ये सीरियल्स....

"दीदी ये रखैल क्या होता है", टीवी पर नजरें गढ़ाए मेरे भतीजे ने मुझ पर ये सवाल दागा तो महसूस हुआ कि सात साल के बच्चे को इस शब्द की गूढ़ता समझाना कितना मुश्किल है... टीवी से पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव की ये महज एक बानगी भर है...
दृश्य-श्रव्य गुणों के कारण टीवी एक ऐसा माध्यम है जिसे परिवार का हर सदस्य एक साथ बैठकर देख सकता है। टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम और फिल्में ना सिर्फ मनोरंजन का बेहतर जरिया है बल्कि दर्शक इनसे जुड़ाव भी साफ महसूस करते हैं। यही जुड़ाव छोटे परदे के धारावाहिकों के माध्यम से काल्पनिक, वास्तविक, सामाजिक और मानसिक सभी सतहों को छूता हुआ सीधा उनकी निजी जिंदगी में प्रवेश कर जाता है। बड़े परदे के दर्जे का मान-सम्मान और बुलंदियां छूने की चाहत में धारावाहिकों को अपने कन्वेंशल रोल से बाहर निकलना पड़ा। 'हम लोग' से शुरू हुआ ये लंबा सफ़र 'नया नुक्कड़ ' से गुजरता हुआ 'लिप्स्टिक' और अंतहीन सास-बहू-बेटियों के पैंतरों में फंसकर रह गया है।
घर-घर में आम सास-बहू की नोंक-झोंक को भारतीय संस्कृति परंपरा से जोड़कर प्रसिद्धि पाने की कोशिश बेहद सफल रही लेकिन अति किसी भी विचारधारा के पतन का पहला कारण है। वास्तविकता दिखाते-दिखाते काल्पनिकता की सारी हदें पार कर जाना भी कहां की समझदारी है। धारावाहिकों में कहीं आलीशान दरो-दरवाजा है तो कहीं मानवीय भावनाओं का भरपूर मखौल उड़ाते हुए मुख्य पात्र को मुसीबतों से हर पल जूझते हुए दिखाया जाता है। छोटे पर्दे की तरह वास्तव में ना तो जीवन इतना आसान और आलीशान है औऱ ना ही मुसीबतों से सराबोर। धारावाहिकों का ये अंधा भटकाव टीआरपी रेटिंग की अंधाधुंध भेड़चाल का ही नतीजा है। अश्लील दृश्य, द्विअर्थी भाषा, गंदे संवाद और प्रेमसंबंधों को भुनाने की कवायद भी इसी कोशिश का घिनौना रूप है। 'चंद्रकांता' जैसा भव्य और प्रसिद्ध धारावाहिक अपनी अश्लीलता के कारण ही बंद हुआ।
दरअसल ये भाषा या बनते-बिगड़ते ये रिश्ते समाज में इतने आम नहीं हैं जितना इन्हें दिखाने की जी-तोड़ कोशिश की जाती है। इसलिए समाज का आइना कहलाने वाला छोटा परदा समाज का वास्तविक स्वरूप दिखाने में नाकामयाब साबित हो रहा है। हां, भारतीय समाज यकीनन बदल रहा है लेकिन यहां मानसिक परिवर्तन की दर भौतिक परिवर्तन से बहुत धीमी है। लोगों की सोच, विचारधारा और जरूरतों से भी तेज छोटे परदे की दुनिया भाग रही है। बार-बार कथित उन्मुक्त समाज की बेलगाम छवि बच्चों को परोसने की वजह से बच्चे इन्हें जीवन से जुड़ी एख सामान्य घटना समझकर गलत संबंधों की तरफ आकर्षित होते हैं लेकिन नतीजा सिफ़र निकलने पर आत्महत्या जैसा चरम कदम उठाने से भी नहीं चूकते।
इस सब के साथ ही नारी की एक बेहद काल्पनिक छवि भी दर्शकों को देखने को मिल रही है। औरत, शांति, अर्धांगिनी जैसे नारी प्रधान धारावाहिकों के बाद तो जैसे भारतीय नारी की कथित आधुनिक छवि को उकेरने की होड़ लग गई। आज नारी या तो सोच से परे की खलनायिका है या फिर अत्याधुनिक सहनशीलता की देवी। या तो तंग कपड़ों में अंग प्रदर्शन करती उन्मुक्त विचारों वाली बाला है या फिर लाज शरम की साड़ी में बेकार रूढ़ियों को बेकार में सहती बेचारी अबला। मतलब साफ है काला या सफेद, किसी भी रूप में नारी की आधुनिक छवि, गढ़ी गई लेखनी का खिलौना बन कर रह गई है। हालांकि तुलसी, पार्वती और कुमकुम के सामने जस्सी और करीना जैसे वास्तविक मिडिल क्लास पात्र मुख्य चुनौती बनकर उभरे तो थे लेकिन फिर ये भी आम हो गया।

3 comments:

निर्मला कपिला said...

आपने बिलकुल सही कहा मैबे तो सीरियल देखने ही छोड दिये औरत का रूप ही बिगाड के रख दिया और अश्लीलता के लिये तो हर चैनल एक से बढ कर एक है क्या करें इन देश के दुश्मनों का आभार्

Taarkeshwar Giri said...

Muskil hai baccho ko samjhana

Barun Sakhajee Shrivastav said...

बच्चे ने सवाल किया जान कर अचरज़ हुआ क्योंकि बच्चे इन्ही माध्यमों के कारण हमसे ज़्यादा दिमाग वाले और समझने वाले हैं हां लेकिन संवेदनाएं इनमें नहीं रहीं जो बेहद चिंता का सबब है....शेष भाषा और विचारों की संप्रेषणियता के साथ ब्लॉग जगत में प्रवेश की समानान्तर बधाई और प्रशंसा के साथ सदैव आपका