आंख के पोरों से ढुलका
गालों का सफर तय करते
ओढ़नी को भिगोता दुख
कैसे छिपाऊंगी इसे कि
पारदर्शी आंसुओं के पार
चेहरों पर पड़ी लकीरों से
कोई पढ़ लेगा कभी
कहां छिपाऊंगी इसे कि
अब तो दिल तक उतर चुका है
अंतड़ियों से गुजरता
लहू के साथ नाड़ियों में
दौड़ता दुख
कोई इलाज है क्या
उत्तर मिला... नहीं
फिर गौर से सुना
मन कुछ कह रहा था
बेचारा कहता है, धीरज धरो
ये वक्त सरकेगा
नई सुबह आएगी
धीरज धरा मैने....
लेकिन नतीजा
दुख आज भी वहीं है,
बस गुजरते लम्हों के साथ
मुझे आदत हो गई
है इसकी... हां इसकी
अब होठों पर हंसी है
सोचती हूं कि मेरे एकांत
का साथी बन बैठा है ये
मेरे अंदर गहराई में कहीं....
8 comments:
अच्छे भाव की रचना। दुख की बात- फिर आपने यह भी कहा-
ये वक्त सरकेगा
नई सुबह आएगी
दुख ही दुख जीवन का सच है लोग कहते हैं यही
दुख में भी सुख की झलक को ढ़ूँढ़ना अच्छा लगा
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत भावपूर्ण रचना!
बस गुजरते लम्हों के साथ
मुझे आदत हो गई
है इसकी... हां इसकी
अब होठों पर हंसी है
सोचती हूं कि मेरे एकांत
का साथी बन बैठा है ये
मेरे अंदर गहराई में कहीं....
मन के भावो की सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई
भाव से परिपुर्ण रचना, सुन्दर।।
dard aapane aap bayan ho jata hai ....jo aapaki kawita ki sahajata se pata chal jata hai
ऐसे वक्त में जब जिंदगी में झूमकर बहार ने दस्तक दी है... ऐसी रचना से मन गीला हो गया... बहुत सुंदर... बहुत ही सुंदर... बहुत, बहुत, बहुत, बहुत खूबसूरत...
विनय कुमार का एक क़त्अ याद आ गया...
मिट्टी हुई है लावा, दहका हुआ फ़लक है।
ठिठुरे हुए दिलों में तफ़रीह की ललक है।
तकलीफ़ नहीं घटती, यह रात नहीं कटती
कुछ नींद ज़ख्म जैसी, कुछ ख्वाब में नमक है।
-अनिल तिवारी
सफल अभिव्यक्ति , दर्द नसों में अंतडियों में रच बस गया है , इलाज तो एक ही है ,अन्दर उतरने ही मत दो यानि कोशिश यही हो उसकी आहट से पहले किसी और कर्म में खुद को व्यस्त कर लो , इसे जगह ही न मिलेगी |
एक मोहक सी रचना ....
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