Tuesday, December 14, 2010
२ जी स्पैक्ट्रम घोटाला फ़ाइल बंद
Thursday, November 25, 2010
मां की याद में
... पहली बार महसूस हुआ कि तकनीक ने दुनिया कितनी बदल दी है। वेंटिलेटर की मदद से पता ही नहीं चलता कि आपके अपने ने कब संसार से विदा ले ली... कब आपको अलविदा कह दिया। वेंटिलेटर में डाली गई दवाओं के प्रभाव से वो अंत तक सांस लेती रहीं... लेती रहीं। मैं देखती रह गई और माजी ने मेरे सामने दम तोड़ दिया और मैं कुछ नहीं कर सकी। डॉक्टर ने बताया कि वो जा चुकी हैं। मैं सन्न रह गई। वो लम्हा कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनके साथ वो मेरी दुनिया भी ले गईं। मुझे बहू से बेटी बनाया उन्होने और अपनी बेटी को छोड़कर चलीं गईं वो। उसके बाद मुझे दुनिया की तमाम उन सच्चाईयों से रूबरू होना पड़ा जिनको देखकर, सुनकर मैं दुखी कम आश्चर्यचकित ज्यादा थी। माजी के जाने के बाद उनकी तेरहवीं के लिए मुझे बिहार अपने ससुराल जाना था। माजी के बिना घर सूना था, बहुत सूना। लेकिन जिस तरह से उनके जाने के तुरंत बाद आस-पड़ोस के लोगों, यहां तक कि अपनों ने जो व्यवहार किया वो बहुत अजीब था। सबकी आंखों में दुख कम एक अजीब सी बेचैनी देखी मैने। इंसान के जाने के बाद रीतिरिवाजों से घिरी दुनिया का आडंबर देखकर मन व्यथित हो उठा। पता नहीं किसने ये रिवाज बनाए जो जिंदा बचे सदस्यों को परेशान कर देते हैं। किसी चीज में मेरा बस नहीं था सो जो सबने कहा मैने किया। खैर, घर की मालकिन के जाने का दुख घर के हर कोने में था। हर खिड़की से झांकता मेरा अतीत मेरे वर्तमान पर हंसता नज़र आया। हर दीवार, हर बर्तन पर माजी की छाप थी। मुझे पहली बार अहसास हुआ कि माजी हमेशा जिंदा रहेंगी। हमारी यादों में, हमारी बातों में और उस अहसास में जो वो आखिरी वक्त में हमें देकर गईं। वो जहां भी हों, खुश और शांत रहें।
Saturday, October 9, 2010
एक रात की बात
खैर कई घंटों बाद हमारे मरीज को एक वॉर्ड में शिफ्ट कर दिया गया. लेकिन चैन को भी चैन ना था उस रात। अभी शिफ्ट हुए ही थे कि धड़धड़ाते हुए तीन डॉक्टर्स वॉर्ड में घुस गए और १५-१६ साल के बच्चे की छाती को दबाकर पंप करने लगे। बच्चे की सांसे लगभग जा चुकी थीं फिर भी डॉक्टर्स की कोशिश लगातार जारी थी। जिंदगी और मौत की ऐसी जंग पहली बार देख रही थी। 10 मिनट तक ये सिलसिला जारी रहा. पंप... पंप... पंप और फिर... सांस लेने की आवाज। आखिरकार बच्चे की सांसे वापस आने लगीं मतलब जिंदगी जंग जीत गई। इस बीच अचानक घड़ी पर नजर दौड़ाई तो देखा कि सुई पांच पर अटकी हुई थी। मैं इमरजेंसी के बाहर निकली। सुबह अंगड़ाई ले रही थी। अपनी चिर परिचित खुशबू के साथ अलसाए संसार में जान फूंक रही थी। लंबी लंबी सांसें भरने के बाद मैं दोबारा इमरजेंसी के अंदर गई तो लगा कि नजारा बदल चुका है। धीरे धीरे वहां शांति ने डेरा जमाना शुरू कर दिया था। फर्शों की सफाई हो रही थी, कई मरीजों को डिस्चार्ज किया जा चुका था। जिनके अपनों ने उनका साथ छोड़ दिया था वो भी रात भर रोकर अब आगे की कार्रवाई को शांति से निपटाने में व्यस्त थे। लगा कि इस सुबह का कितनी देर से इंतजार था मुझे। शांत, शीतल और सात्विक.
Sunday, September 12, 2010
... और खोज जारी है
झांकू मैं आखिर कितनी बार
मालूम है कि आंचल फैलाए
खड़ी है तू इंतजार में
रास्ता छोटा पर दूरी बड़ी है
मन से बाहर, व्याकुल मन से बाहर
आता नहीं क्यों वो
खुद बाहर आता नहीं
ना आने देता भीतर तुझे
जम गया अवसाद है शायद
रिस रिस कर टपकता है शायद
शांति, संतुष्टि या निजता के पलों को
तन्हाई के तरन्नुम में खोजता मन
खुशियों के पलों में दुख को
खोदता, टटोलता अंशात मन
वो कुछ जो ना मिल सका
उस कुछ की खोज में
नित नई खोज पर निकला
तन्हा, बावरा मेरा मन
Thursday, September 9, 2010
आ जाए तू अगर...
एक सिरा मिल जाए तो बस
बात बन जाए
कसमसाती धड़कनें चलने लगें
तू आवाज दे तो बस
बात बन जाए
क्यूं ढांक दूं मैं ये जख्म
तेरे प्यार ने जो दिया
तू आकर इसे छू जाए तो
बस बात बन जाए
सब सपने, वादे, इरादे
देख धुंधलाने लगे हैं
अपने अहसास से इन्हें
छंटा दे तो बस
बात बन जाए
वक्त अभी भी है जीने को
बस तेरा साथ मिल जाए
तो बात बन जाए
Friday, August 27, 2010
ममता मतलब मां

Sunday, August 22, 2010
जिंदगी ए जिंदगी

Thursday, August 12, 2010
भौजी की प्यारी हिंदी
ई तो हद हो गई, हटटटट... बोलते हुए भौजी ने रेडियो का कान जोर से घुमाकर, बंद कर दिया। और पटक दिया एक कोने में। बडबड़ाती हुई भौजी ने चौखट से बाहर कदम रखा ही था कि मैं पहुंच गई, भौजी के हाथ की गरमागरम चाय पीने। भौजी का मूड देखते हुए अपनी मंशा मन में ही दबाते हुए मैने पूछा-
क्यों भौजी कैसी हो? वैसे ठीक तो नहीं लग रही। क्या बात है?
मुंह बनाते हुए भौजी बोली- का बोलें। हिंदी का तो ई लोग बैंड बजा दिए हैं। पहले ईंग्लिश बोलते थे, फिर मुई हिंग्लिश आ गई और अब स्वाधीनता दिवस के अवसर पर सिर्फ और सिर्फ हिंदी बोलने की जिद ठाने बैठे हैं। ये तो वही बात हुई कि ढाबे में वो क्या कहते हैं महंगा विदेशी खाना परोसा जाने लगा है।
मुझे समझ में नहीं आया कि भौजी आखिर नाराज हैं क्यों। भौजी तो हिंदी भाषा की बड़ी हिमायती बनती हैं। मुझे असमंजस में देखकर वो बोली
अरे आजकल एफएम पर हिंदी बोलो आंदोलन चल रहा है। रेडियो वाले हिंदी के शुद्ध शब्द बोलने की कोशिश कर रहे हैं। गधे कहीं के। मोबाइल, टेलीफोन और माइक जैसे शब्दों को भी शुद्ध हिंदी में बोलने की अजीब जिद है। मैं पूछती हूं कि क्यों। आखिर जिन शब्दों को हिंदी भाषा ने खुद में घुला मिला लिया है उन्हें शुद्ध हिंदी में बोलने की जरूरत ही क्या है भला। और फिर ये शब्द बोलने में थोड़ा लंबे और मुश्किल भी हैं।
मैने कहा- हां, भौजी बात तो पते की है। संस्कृत भाषा भी तो इसलिए ही लुप्त हो गई क्योंकि ये हमेशा से ही देवभाषा रही। जनसाधारण की भाषा कभी बन ही नहीं पाई। जनता ने तो उसी भाषा को गले लगाया जिसे बोलने और समझने में उसे परेशानी नहीं आई। जैसे हिंदी। और फिर वक्त के साथ-साथ हिंदी का स्वरूप बदला और हिंदी में उर्दू, फारसी और ईंग्लिश के शब्द समाहित होते गए।
भौजी बोली- इही बात तो हम भी कह रहे हैं। अरे भई एफएम वालों को अपने फोन और एसएमएस से मतलब हैं। हिंदी का भला वो क्या अचार डालेंगे। नाहक ही स्वाधीनता दिवस और हिंदी का मजाक बना के रख दिए हैं। स्वाधीनता दिवस का खुमार उतरा नहीं कि फिर अपनी हिंग्लिश भाषा पर उतर आएंगे। हिंदी किसी के बोलने और ना बोलने की मोहताज थोड़े ही है। हम ये भाषा बोलते हैं क्योंकि इस देश में रहने के नाते ये हमें अपनी सी लगती है। और ईंग्लिश का क्या है। ईंग्लिश तो पैसे कमाने वाली लुगाई की तरह है। उससे प्यार तो करना ही पड़ेगा। कोनो चारा भी तो नहीं है।
मैने कहा- सोलह आने सच बात है भौजी। ये सब तो सरकार को सोचना चाहिए ना। अगर सारा सरकारी काम चीन या जापान की तरह अपनी मातृभाषा में किया जाता तो आज हिंदी की ये दुर्दशा नहीं होती।
मैने बात खत्म भी नहीं की थी कि भौजी हाथ में चाय का प्याला लेकर मेरी तरफ बढ़ी और बोली- काश हिंदी को लोग मजबूरी नहीं, गर्व समझकर अपनाते तो कितना भला होता। और मैं चाय की चुस्कियों के साथ भौजी की कही बात के मर्म में डूब गई।
Thursday, August 5, 2010
... बात समझ में आई कि नहीं
Saturday, July 31, 2010
अफसोस है...
चोट अपनों ने की
दिल छलनी हुआ
पर आंखों में पानी नहीं
पीड़ा बनी अवसाद
जमा होती रही
पता ही नहीं चला
और फिर एक दिन
विश्वास टूट गया
टूट गया जब
तब अहसास हुआ
कि रेत से बना मेरा
घरौंदा बिखर चुका
सपनों के मोती
यहां, वहां पड़े हैं
कौन समेटे अब कि
हिम्मत टूट गई
जख़्म गहरा है, बहुत गहरा
Wednesday, July 7, 2010
ससुरी महंगाई और हमार भौजी
महंगाई डायन खाए जात है
अपने आमिर भाई की नई फिल्म का गाना है... भई गाना सुनके हम तो हो गए चित। कमाल है भइया। वैसे कमाल तो हमारी गली में रहने वाली भौजी भी है। हमारे साथ भौजी ने भी ये गाना सुना। अजी गाना क्या सुना, भौजी के दिल को छू गया। बस हर दूसरे भजन कीर्तन के समापन पर यही गाना गाया जाता है। नहीं नहीं मैं आमिर की नई फिल्म की डिस्ट्रिब्यूटर नहीं हूं, मैं तो आपको वो कमाल का वाकया सुनाने जा रही हूं जो इस गाने से जु़ड़ा हुआ है। अब हुआ यूं कि कल भौजी ढोलक की थाप पर जब महंगाई डायन को कोस रही थीं तो अचानक दरवाजे पर खूब सजी संवरी कड़क सूती साड़ी में एक महिला आकर खड़ी हो गई। वो कौन है क्या काम है भौजी समेत सभी औरतें ये तो बाद में पूछतीं, पहले तो नजर उसकी साड़ी, उसकी महंगे कीमती गहने और उसके पर्स पर जाकर टंग गईं। उनके मुंह खोलने से पहले ही वो औरत चिल्लाने लगी
- मैं कहती हूं किसने कहा मुझे डायन. किसकी इतनी हिम्मत हुई। अभी तो मेरे एक वार से सिर्फ कमर ही टूटी है ज्यादा चूं-चपड़ की ना तो हमेशा के लिए बिस्तर पर बिठा दूंगी... महंगाई है मेरा नाम हां...
भौजी की प्यासी नजरों ने जब मन भर कीमती गहनों और कपड़ों का स्वाद चख लिया तो होश आया। वो भी गुर्राने लगी
- अच्छा तो मुई तू है वो महंगाई। तभी मैं कहूं इस जमाने में इतने कीमती गहने और ये सजीला पर्स कहां तो आया। पहले से ही मुसीबतें कम थीं जो ससुरी तू भी आ गई जान खाने को।
महंगाई - क्या... मुझे गाली दी। तुम्हारी इतनी हिम्मत। अब देखो जरा डीजल, पैट्रोल तो पहले ही तुम फटीचरों की जेब से दूर चला गया है अब पानी, बिजली को भी तरसोगे तुम।
भौजी- अरे जा जा तेरी इतनी औकात कहां। ये तो भला हो दिल्ली सरकार का जिसने सब्सिडी हटाकर पानी बिजली हम गरीबों के लिए महंगी कर दी वरना इसका श्रेय भी तुझ डायन को ही जाता। और तू क्या हमको मसलेगी री, पहले तो घर से निकलते ही मोहल्ले के बेरोजगार लड़के ही जेब पर हाथ साफ कर देते हैं। या फिर सड़क पर चलते हुए तरह तरह के मजहबी विस्फोट से कब घर का कमाईदार चल बसे कुछ ठीक नहीं। ससुरी किस्मत अच्छी हुई और आदमी बच जाए तो जगह-जगह खुदी सड़कों और गड्डों से कइसे बचेगा। और गर किस्मत में ही छेद हो और जिंदगी बची रहे तो रहा सहा तेल तो इश्क का भूत ही उतार देत है। कर के देख लो जरा मां-बाप की मरजी से प्यार महोब्बत बस जान खुंखरी पर समझो। ई सब से कोई बच जाए तो हम रामदुलारी के घर महरी बन जाएं कसम से। तुम्हारा नंबर तो ए सब के बाद आवत रहै समझी. और ऊ भी तब जब कि हम सब महोल्ले की औरतें शीला बहन के घर रात को टीवी पर नाटक ना देख लें। कसम से ससुरा इतना रुलात है इतना रुलात है कि कौनो और चीज सोचने का मन ही ना करे। बाकी रहा सहा तुम मसल लो मौज से।
महंगाई- साला किस्मत से ही खोटी हो तुम सब। तुमको क्या लूटा जाए। लुटे लुटाए हो। बजाओ यार, बजाओ... आज मैं भी झूमके नाचूंगी। तुम सब की बर्बादी पर।
और फिर क्या... भौजी के ही मुंह से सुना वो डायन महंगाई ढोल की थाप पर खूब जमके नाची। और जाने कैसे लेकिन नाचते नाचते उसका आकार लगातार बढ़ रहा था।
Wednesday, June 30, 2010
ये क्या हुआ ?
ना हमको उनसे शिकवा
बस बात नहीं होती अब
ना नजरों से ना जुबानी
ना खैर पूछते, ना बताते ही खता
कल, परसों फिर आज भी किया
रोजाना करते हैं रह रह कर हम
उनसे ख्वाबों में गिला
हम समझ नहीं पाते, ना वो कह पाते
कह पाते कि क्यों है हालात यूं ख़फ़ा
कहने को है ही क्या, जानते हैं माजरा सारा
कि आसार अच्छे नहीं, वहां भी यहां भी
दूर थे तो पास आने की थी बेकरारी
बेगानी सी लगती थी कायनात सारी
पर अब क्या ?
पास हैं तो...
नजदीकियां दम घोंटने लगी हैं
Tuesday, June 29, 2010
शब्दों का संसार
शब्द जो नाचने लगें पन्नों पर
जो अहसास हैं उस पल का
जब हर क्षण यादों की माला में
गुंथ रही थी मेरी दुनिया
शब्द जो बचपन के साथ मुस्कुराएं
तुतलाएं जिंदगी में घुलमिल जाएं
यादों की बारात ले आएं
निच्छल हंसी के लम्हे
जब सब कुछ नया-नया सा
अजीब अनोखा था
वो अहसास अनमोल है
अपने शहर से दूर जाने का अहसास
पहली नौकरी का अहसास
पहले प्यार का अहसास
अहसास विविधता में एकता का
या फिर एकता के ढोंग का
वो अहसास बंद है डायरी के पन्नों में
पन्ने खोलते ही शब्द नाचने लगते हैं
और वो खोये लम्हे, वो बीते पल
खुद को दोहराने लगते हैं
तब, मन हरा हो जाता है
और पलकें नम
Sunday, January 17, 2010
सुख... का सवाल
कहां ना जाने कहां भागता है मन। कभी किसी के टॉप क्लास ब्रांडेड कपड़ों में अटक जाता है तो कभी किसी के खूबसूरत घर पर... तो कभी लगता है कि कोई खास आपकी भावनाओं को बिन बोले ही समझ जाए। और ना समझे तो खीझ और झुंझलाहट से मन भर जाता है। यार इतनी इच्छाएं करता ही क्यों है मन। भौतिकवाद है, सब समझते हैं लेकिन ये जो मन है ना मानता ही नहीं। सब चाहिए इसे सब तब भी अधूरा, खाली खाली सा और प्यासा ही दिखता है। बस भागता रहता है एक को छोड़कर दूसरे की तरफ और दूसरे से ना जाने कहां-कहां? आकांशाओं और इच्छाओं की अंधाधुंध दौड़ आखिरकार अंधकार में पटक देती है... बहुत समझदार होते हुए भी शायद खुद से या दूसरों से लगाई गई अति इच्छाओं के बोझ से बौरा जाता है ये मन। अकेलेपन की कीचड़ से सना शरीर और अवसाद भरा मन लिए फिर इंसान कहीं जाने के लायक नहीं रह जाता। पहले तो उसे सामने खड़ी खुशी नहीं दिखती है बेकाबू मन को खुले सांड की तरह यहां वहां दौड़ने की छूट दे दी जाती है और फिर जब मन संभाले नहीं संभलता तो धोबी का कुत्ता बन जाते हैं। मेरे ख्याल से भागते मन का एक ही तोड़ है संतुष्टि। संतुष्ट रहकर पल पल का मजा लीजिए। जो है उसी में खुश रहिए। लेकिन फिर सोचती हूं कि संतुष्टि विकास के रास्ते में रोड़ा ना बन जाए। भई अब ये आपके ऊपर है कि कितना संतुष्ट रहकर आप विकास की गाड़ी में धक्का लगा सकते हैं... खैर... लगता है बहुत सोचती हूं... ना सोचूं भी तो क्या, कुछ नहीं लेकिन फिर मन में फंसी गांठ मुझे ही छीलकर रख देगी...